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१०. देशावकासिक व्रत
दिशापरिमाण व्रत में गृहीत परिमाण को किसी नियत समय के लिये पुनः मर्यादित करना देशावकासिक व्रत कहलाता है।
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जैनेन्द्रसिद्धांतकोश के अनुसार - दिग्व्रत में प्रमाण किये हुये विशाल देश में काल के विभाग से प्रतिदिन क्षेत्र का त्याग करना अणुव्रत धारियों का देशावकासिक व्रत है |
उपासकदशांगसूत्र में इस व्रत के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है. कि निश्चित समय के लिए क्षेत्र की मर्यादा कर उससे बाहर किसी प्रकार की सांसारिक प्रवृत्ति नहीं करना देशावकासिक व्रत है। यह दिग्व्रत का संक्षिप्त रूप है ।
देशविरति व्रत सर्वकाल अर्थात् यावज्जीवन के लिये होता है जब कि देशावकासिक व्रत नियत काल के लिए होता है। दिक्वत में केवल क्षेत्र मर्यादा की जाती है, जबकि देशावकासिक व्रत में देश, काल और उपभोगपरिभोग इन तीनों की मर्यादा की जाती है।
देशावकासिक व्रत की साधना में साधक एक, दो या अधिक दिनों के लिये लौकिक प्रवृत्तियों एवं भोग-उपभोग की सामग्री की मर्यादा को और अधिक सीमित कर लेता है। इस प्रकार इस व्रत के द्वारा साधक गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधुत्व की साधना करता है।
वर्तमान में व्रतधारी श्रावक इस व्रत का नियमित रूप से पालन कर सके अतः इसके लिये निम्न चौदह नियमों का निर्धारण किया गया है
(१) सचित्त : सचित्त वस्तु फल, शाक-सब्जी आदि की संख्या, मात्रा आदि को सीमित करना ।
(२) द्रव्य : खाने-पीने के द्रव्यों की संख्या का निर्धारण करना तथा आज खाने में निर्धारित संख्या से ज्यादा नहीं लूंगा ऐसा संकल्प करना ।
५६. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश- भाग २, पृष्ठ ४५० ।
६०. उपासकदशांग - १/४१ -
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(३) विगय : घी, तैल, दूध, दही, गुड़ (शक्कर) एवं तले हुये इन छः विगयों में से किसी एक, दो या उनसे अधिक का त्याग करना ।
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( लाडनूं, पृष्ठ ४०६ ) ।
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