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(२) क्षेत्रविशुद्धि : सामायिक साधना का स्थान एकान्त, शान्त, पवित्र एवं ध्यान साधना के अनुकूल होना चाहिए, यह क्षेत्र विशुद्धि है। (३) द्रव्यविशुद्धि : सामायिक की साधना में गृहस्थ की वेशभूषा तथा श्रृंगार आदि त्याग आवश्यक होता है। इस प्रकार सामायिक की वेशभूषा तथा उसके उपकरण का सादगीपूर्ण एवं स्वच्छ होना द्रव्यविशुद्धि है। (४) भावविशुद्धि : सामायिक में भावों की विशुद्धि का रहना भाव विशुद्धि है। द्रव्य विशुद्धि, काल विशुद्धि, क्षेत्र विशुद्धि, बाह्य विशुद्धि है तथा भाव विशुद्धि आंतरिक शुद्धि है । संक्षेप में अप्रशस्त, अशुभ विचारों का परित्याग तथा प्रशस्त एवं शुभ विचारों में रत रहना भाव विशुद्धि है।
सामायिक व्रत के पांच अतिचार :
(१) मनोदुष्प्रणिधान : मन में अशुभ विचार करना मनोदुष्प्रणिधान है। यहां मन को समभाव में स्थिर न रखकर सांसारिक विषयों या विकल्पों में लगाना मनोदुष्प्रणिधान है।
(२) वाचोदुष्प्रणिधान : अशुभ वचन व्यापार वाचोदुष्प्रणिधान है। .. सामायिक में कठोर, कर्कश, निष्ठुर शब्दों का प्रयोग करना वाचोदुष्प्रणिधान है। . (३) कायदुष्प्रणिधान : शरीर के द्वारा अशुभ प्रवृत्ति करना अर्थात् सामायिक में अनावश्यक हाथ-पांव का हलन-चलन करना कायदुष्प्रणिधान है।
(४) स्मृत्यकरण : सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के अनुसार सामयिक के विषय में एकाग्रता नहीं रखना स्मृत्यकरण अतिचार है। वस्तुतः सामायिक में सजगता का अभाव या प्रमादाचरण ही स्मृत्यकरण है। सामायिक की समय-मर्यादा को विस्मृत करना भी स्मृत्यकरण कहा जाता है। . (५) अनवस्थितता : अव्यवस्थित रूप से सामायिक करना अर्थात् सामायिक में शीघ्रता करना, विधि के अनुसार नहीं करना, अनवस्थितता दोष है।
१६. (क) तत्त्वार्थसूत्र - ७/३३
(ख) तत्त्वार्थसूत्र - ७/३३
- (सर्वार्थसिद्धि) - (श्लोकवार्तिक)।
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