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क्रियायें अनावश्यक होती है। सार्थक सावद्य क्रिया करना अर्थदण्ड है, जबकि निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियों का करना अनर्थदण्ड है।
____जैन आगमों में दण्ड शब्द हिंसा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः सप्रयोजन हिंसा अर्थदण्ड कहलाती है, जो शरीर, परिवार आदि के लिए होती है। इसके विपरीत निष्प्रयोजन हिंसा अर्थात् अकारण की गई हिंसा अनर्थ दण्ड हिंसा
जैसे दूसरों को व्यर्थ पीड़ा पहुंचाने का कार्य, चलते-चलते पशुओं को मार देना, फूल एवं पत्तियों आदि को तोड़ लेना, तालाब आदि में पत्थर फेंकना। आवश्यक कार्य के पूर्ण हो जाने पर भी पाप प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होना भी अनर्थदण्ड कहलाता है जैसे कार्य समाप्ति के बाद भी नल, पंखे, बिजली को खुला छोड़ देना। आवश्यकता से अधिक वस्तु का उपयोग और संग्रह करना भी अनर्थदण्ड है।
अनर्थ दण्ड के चार प्रकार :
(१) अपध्यान : सामान्यतः दुर्विचार अपध्यान :, कहलाता है। सर्वार्थसिद्धि रत्नकरण्डकश्रावकाचार तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार 'द्वेषवश किसी प्राणी के वध, बन्ध और छेदन आदि का चिंतन करना तथा परस्त्री का चिंतन करना अपध्यान है। योगशास्त्र तथा सागारधर्मामृत में आर्तध्यान, रौद्रध्यान, रूप अशुभ चिंतन को अपध्यान कहा है।
(२) प्रमादाचरण : जागरूकता या सजगता के अभाव में किया गया आचरण प्रमादाचरण है। सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में निष्प्रयोजन भूमि खोदना, पानी बहाना, अग्नि जलाना, वनस्पति का छेदन आदि करने को प्रमादाचरण कहा है।
५२. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृष्ठ २८६ । ५३. (क) तत्त्वार्थसूत्र ७/२१ - (सर्वार्थसिद्धि);
(ख) रत्नकरण्डकश्रावकाचार - ७८;
(ग) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय - १४१, १४६ । ५४. (क) योगशास्त्र - ३/७५ ।
(ख) सागार धर्मामृत - ५/६ । ५५. (क) तत्त्वार्थसूत्र ७/२१ - सर्वार्थसिद्धि ;
(ख) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १४३ । Jain Education International
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