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________________ (४) भाटककर्म : वाहन एवं पशु आदि किराये पर देना । (५) स्फोटक कर्म : भूमि पत्थर आदि के फोड़ने का कर्म जैसे - खान खुदवाना । (६) दन्तवाणिज्य : हाथी के दांत आदि का व्यवसाय करना । उपासकदशांग की टीका में चमड़े, हड्डी आदि के व्यापार को भी इसमें सम्मिलित किया गया है । " (७) रसवाणिज्य : मदिरा आदि विकृत रस वाले द्रव्यों का व्यापार । (८) विषवाणिज्य : जहरीले पदार्थों एवं हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार । (६) केशवाणिज्य : केश (बालों) तथा केशवाले (बाल वाले) प्राणियों को बेचने आदि का धंधा करना । ४४७ : (१०) यंत्रपीड़न कर्म : घाणी, कोल्हू आदि यंत्रों के द्वारा तैलीय पदार्थों को पीसने का धंधा करना । . (११) निर्लाछन कर्म: प्राणियों के अंगों का छेदन - भेदन करना । (१२) दावाग्निदापन : जंगल, खेत आदि में आग लगाने का कार्य । (१३) सरद्रहतडागशोषन कर्म : तालाब, जलाशय, झील आदि को सुखाने का कर्म । (१४) असतीजन पोषण कर्म : असती अर्थात् दुराचारिणी स्त्रियों (वेश्या) का पोषण " करना, उनसे दुराचार करवाकर अर्थोपार्जन करना। चूहे आदि को मारने के लिये . कुत्ते, बिल्ली आदि को पालना । उपर्युक्त पंद्रह प्रकार के कर्मों में त्रसजीवों की हिंसा की प्रधानता है तथा इनमें से कई कर्म समाजविरोधी एवं निन्दनीय भी है। अतः श्रावक के लिए इन व्यवसायों का निषेध किया गया है। ८. अनर्थदण्ड विरमणव्रत अनर्थदण्ड का सीधा सा तात्पर्य है अनर्थ अर्थात् निष्प्रयोजन / व्यर्थ में दण्ड का भागी बनना । व्यक्ति अपने जीवन-व्यवहार में कुछ सार्थक क्रियायें करता है, कुछ निरर्थक । सार्थक क्रियायें आवश्यक होती है, निरर्थक ५१. उपासकदशांग टीका - पत्र ६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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