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(२) उपानह : जूते, चप्पल आदि की सीमा को निश्चित करना। (३) शय्यासन : पलंग, खाट आदि की संख्या का निर्धारण। (४) सचित्त द्रव्य : सचित्त वस्तु की मर्यादा करना। (५) द्रव्य : अन्य वस्तुओं की जाति व मात्रा को सीमित करना। ...
यहां ज्ञातव्य है कि जितने स्वाद बदलते है उतने ही द्रव्य होते हैं। जैसे, गेहूं एक वस्तु है पर उससे बनी रोटी, पूड़ी, सीरा आदि अलग-अलग द्रव्य है।
सातवें व्रत के पांच अतिचार :
(१) सचित्त आहार : मर्यादा से अतिरिक्त सचित्त आहार करना। (२) सचित्त प्रतिबद्ध : सचित्त-अचित्त ऐसी मिश्र वस्तु का आहार करना। (३) अपक्वाहार : बिना पका हुआ आहार करना । (४) दुष्पक्वाहार : पूरी तरह नहीं पका हुआ आहार करना । ।
(५) तुच्छ औषधि भक्षण : यहां औषधी से तात्पर्य वनस्पति है। अर्थात् ऐसे पदार्थों का भक्षण करना जो खाने योग्य नहीं है अर्थात् अभक्ष्य है अथवा जिन पदार्थों में खाद्य अंश कम एवं फेंकने योग्य अंश अधिक हो उनका भक्षण करना।
ये उपर्युक्त अतिचार भोजन सम्बन्धी कहे गये हैं। इसी के अन्तर्गत कर्म आश्रित १५ अतिचारों का भी उल्लेख किया जाता है। इन पंद्रह कर्मों का सम्बन्ध कर्म से है। भोग-उपभोग के साधन जुटाने के लिये अर्थ की आवश्यकता होती है अतः उस अर्थ का उपार्जन कैसे करना यह जानना भी आवश्यक है। उपासकदशांगसूत्र में पंद्रह कर्मों अर्थात् व्यवसायों को जो महारम्भ एवं महा हिंसा का कारण है श्रावक के लिये निषिद्ध बताया गया है । वे निम्न हैं - (१) अंगार कर्म : अग्नि संबंधी व्यवसाय जैसे- कोयले बनाना, जंगल में आग लगाना। (२) वन कर्म : वन संबंधी कर्म जैसे हरे वृक्ष काटकर लकड़ियां बेचना आदि। (३) शकटकर्म : वाहन संबंधी व्यापार।
४६. प्राकृत-हिन्दी-कोश, पृष्ठ ६६ । ५०. उपासकदशांग १/३८ - (लाडनूं, पृष्ठ ४०५)।
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