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आने वाली सामग्री भी किया है। 14 'योगशास्त्र' एवं 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में भोग एवं उपभोग शब्दों का प्रयोग किया गया है। 15 वहां भोग का अर्थ एक बार भोगने योग्य पदार्थ तथा उपभोग का अर्थ बार- बार भोगने योग्य पदार्थ किया है।
इस प्रकार अधिकांश आचार्यों के मत से परिभोग के साथ आने वाले उपभोग का अर्थ एक बार भोग में आने वाली सामग्री तथा परिभोग का अर्थ अनेक बार भोगने योग्य सामग्री किया है। किन्तु उपभोग शब्द जब भोग के साथ प्रयुक्त होता है वहां इसका अर्थ बार-बार उपयोग में आने वाली वस्तुएं तथा भोग का अर्थ' एक बार उपयोग में आने वाली सामग्री किया जाता है।
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आचार्य देवेन्द्रमुनि के अनुसार उपभोग - परिभोग की एक अन्य व्याख्या भी शास्त्रों में उपलब्ध होती है। जो पदार्थ शरीर के आंतरिक भाग से भोगे जाते हैं। वे उपभोग हैं तथा जो पदार्थ शरीर के बाह्य भाग से भोगे जाते हैं वे परिभोग हैं। 46
रत्नकरण्डक श्रावकाचार के अनुसार परिग्रह परिमाण व्रत में दी हुई मर्यादा के अनुरूप ही भोगों के प्रति राग और आसक्ति को कृश करना तथा प्रयोजनभूत इन्द्रियों के विषयों की संख्या को सीमित करना भोगोपभोग परिमाणव्रत है। 17
इस प्रकार उपभोग तथा परिभोग की मर्यादा को निश्चित करना उपभोग परिभोग परिमाणव्रत कहा जाता है। उपासकदशांगसूत्र में उपभोग परिभोग परिमाण व्रत में निम्न वस्तुओं की मर्यादा निर्धारित की गई है
(१) उद्वद्रवणिका विधि
४४. उपासकदशांग टीका पत्र १० । ४५. (क) योगशास्त्र ५ / ३ ।
(२) दन्तधावन विधि : दन्तमंजन की मर्यादा । (३) फल विधि
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: शरीर पौंछने के लिये रखे जाने वाले वस्त्र ( रूमाल, तौलिये) की संख्या सीमित करना ।
(ख) रत्नकरण्डक श्रावकाचार ३/३७ ।
४६. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप - ३२१ । ४७. रत्नकरण्डक श्रावकाचार ३/३६ । ४८. उपासकदशांग - १/२६ ( लाडनूं, पृष्ठ ४०१ ) ।
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खाने योग्य फलों को छोड़कर अन्य फलों का त्याग।
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