SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४३ श्रावक का यह व्रत अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है :(१) सर्वप्रथम व्यापार क्षेत्र की निश्चित सीमा रेखा निर्धारित हो जाती है। (२) उसकी अधिक भागदौड़ मिट जाती है। (३) वह अनावश्यक गमनागमन से होने वाले कर्म बन्ध से बच जाता है। दिग्परिमाणव्रत के अतिचार : (१) ऊर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण। (२) अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण। (३) तिर्यक् (मध्य) दिशा के परिमाण का अतिक्रमण। (४) क्षेत्र (दिशा) के परिमाण को बढ़ा लेना. अर्थात् एक दिशा के परिमाण को दूसरी दिशा के परिमाण में मिला देना यथा पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा आदि में १००-१०० कि.मी. की छूट रखी हो और पूर्व दिशा में 100 कि.मी. से अधिक जाना हो तो पश्चिम दिशा के ५० कि.मी. मिलाकर पूर्व दिशा में १५० कि.मी. की यात्रा कर लेना। । (५) किये हुये परिमाण का यदि भूल से अतिक्रमण हो जाय तो पुनः ध्यान आने पर भी आगे गमन करना। ___७. उपभोग परिमोग परिमाणव्रत श्रावक के इस सातवें व्रत में प्रयुक्त उपभोग के अर्थ में विभिन्न ग्रन्थों में अन्तर देखा जाता है। अभिधानराजेन्द्रकोश में भगवतीसूत्र के आधार पर उपभोग का अर्थ बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री किया गया है।42 आवश्यकसूत्र की वृत्ति भी इसी अर्थ का समर्थन करती है तथा धर्म संग्रह में भी यही अर्थ प्राप्त होता .. आचार्य अभयदेवसूरि ने उपासकदशांगसूत्र की टीका में उपभोग का अनेक बार उपयोग में आने वाली सामग्री तथा परिभोग का अर्थ एक बार उपयोग में १२. अभिधानराजेन्द्रकोश, द्वितीय भाग, पृष्ठ ८६६ । ४३. (क) उद्धृत - जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप पृष्ठ ४२०; (ख) धर्मसंग्रह - भाग ३३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy