________________
४४२
व्रत को 'इच्छापरिमाणव्रत' भी कहा गया है। परिग्रह का आन्तरिक कारण इच्छा है । अतः उस पर नियन्त्रण करना अत्यावश्यक है; चूंकि इच्छा का सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है अतः उनकी मर्यादा रखना भी आवश्यक है।
इस प्रकार इच्छाओं एवं वस्तुओं को मर्यादित करते हुए उपलब्ध वस्तुओं पर भी ममत्व नहीं रखना अपरिग्रह-अणुव्रत या परिग्रह परिमाण व्रत है।
अपरिग्रह-अणुव्रत के अतिचार :
(१) क्षेत्र, वस्तु आदि के परिमाण का अतिक्रमण करना। (२) हिरण्य स्वर्ण के परिमाण का अतिक्रमण करना। (३) द्विपद, चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण करना। (४) धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण करना।
(५) गृहस्थ-जीवन के लिए आवश्यक अन्य सामान की सीमा का अतिक्रमण करना।
इस प्रकार परिग्रह की मर्यादा का अतिक्रमण करना परिग्रह परिमाणव्रत के अतिचार है।
६. दिग्परिमाणव्रत यह श्रावक का प्रथम गुणव्रत है। दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा को निश्चित करना दिग्परिमाण व्रत है। दिशाओं की संख्या विभिन्न प्रकार की मानी गई है।
योगशास्त्र के अनुसार चारों दिशा (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण) विदिशा (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य) ऊर्ध्वदिशा एवं अधोदिशा इन दस दिशाओं में व्यवसाय एवं भोगोपभोग के निमित्त गमनागमन की सीमा निश्चित करना दिग्परिमाणव्रत है।"
४०. उपासकदशांग १/२८ (लाडनूं, पृष्ठ ४००) । ४१. योगशास्त्र ३/१1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org