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________________ बौद्धदर्शन में भी गृहस्थ साधक के लिये स्वपत्नी संतोषव्रत का विधान किया गया है। 'सुत्तनिपात में कहा गया है कि साधक यदि ब्रह्मचर्य का पालन न कर सके तो कम से कम स्वस्त्री का अतिक्रमण न करें। 37 ४४१ इस प्रकार ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अन्तर्गत गृहस्थ साधक के लिये वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन को संयमित करने का विधान किया गया है, जिससे व्यक्ति काम विकृतियों से दूर रहता हुआ स्वपत्नी से ही संतुष्ट रहे। ५. अपरिग्रह अणुव्रत अपरिग्रह अणुव्रत के अन्तर्गत अपरिग्रह शब्द अभाव का सूचक न होकर अल्पता, न्यूनता का सूचक है। इसीलिये इसे परिग्रह परिमाणव्रत भी कहा जाता है। श्रावक साधु की तरह पूर्ण रूप से निष्परिग्रही नहीं हो सकता है। यह कहा जाता है कि साधु कौड़ी रखे तो कौड़ी का और गृहस्थ के पास कौड़ी न हो तो कौड़ी का अर्थात् गृहस्थ जीवन में अर्थ की भी आवश्यकता होती है । पर आवश्कता की अपेक्षा आकांक्षा अधिक होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जैसे-जैसे लाभ होता जाता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। अतः इससे बचने के लिये गृहस्थ श्रावक के व्रतों में परिग्रह की सीमा निर्धारित की गई है। 38 जैन ग्रन्थों में निम्न नौ प्रकार से परिग्रह की सीमा निर्धारित की गई है- १. क्षेत्र, कृषि योग्य क्षेत्र (खेत) या अन्य खुला हुआ भूमि भाग २. वास्तुनिर्मित भवन आदि, ३. हिरण्यं अर्थात् चांदी ४. स्वर्ण अर्थात् सोना, ५. द्विपद, दास, दासी आदि नौकर, ६. चतुष्पद गाय बैल आदि ७. धन मुद्रा आदि . धान्य- अनाज आदि ६. कुप्य - घर गृहस्थी का फुटकर सामान। ८. इन नौ प्रकार के परिग्रह का परिसीमन गृहस्थ श्रावक के लिये आवश्यक है । राग-द्वेष, कषाय आदि आन्तरिक परिग्रह है । अतः गृहस्थ के लिए इनका त्याग एवं परिसीमन भी आवश्यक है। उपासकदशांगसूत्र में परिग्रह परिमाण ३७. सुत्तनिपात - २६/११ ३८. उत्तराध्ययनसूत्र - ८/१७ । ३६. दिसूत्र - १८ । Jain Education International • उद्धृत् जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृष्ठ २८२ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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