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________________ ४३६ अणुव्रत की प्रतिज्ञा निम्न रूप से ग्रहण की गई है- “मैं स्वपत्नीसंतोषव्रत ग्रहण करता हूं । शिवानन्दा नामक अपनी पत्नी के अतिरिक्त सब प्रकार के मैथुन का त्याग करता हूं।" आवश्यकसूत्र में भी अपनी विवाहिता स्त्री में संतोष रखकर अन्य सभी मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत माना गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार चारित्र मोहनीय का उदय होने पर राग से आक्रान्त स्त्री-पुरूष में परस्पर स्पर्श की आकांक्षा जन्य क्रिया मैथुन कहलाती है। ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करने वाला श्रावक स्वस्त्री के संबंध में भी मैथुन की मर्यादा निर्धारित करता है । ब्रह्मचर्य अणुव्रत के ग्रहण से श्रावक श्रमण की तरह कामवासना से पूर्णतः विरत नहीं होता है, परन्तु वह संयत हो जाता है अर्थात् पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों के संसर्ग का त्यागी हो जाता है। वसुनन्दीश्रावकाचार के अनुसार अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्रीसेवन एवं अनंगक्रीड़ा का त्याग करने वाले को स्थूल ब्रह्मचारी कहा जाता है। ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार : १. इत्वरपरिगृहीतागमन : . आचार्यों ने इत्वर शब्द के दो अर्थ किये हैं- अल्पकाल और अल्पवयस्का (स्त्री) इस प्रकार अल्पकाल के लिये रखी हुई स्त्री के साथ मैथुन का सेवन करना या अल्पवयस्का के साथ समागम करना इत्वरपरिगृहीतागमन अतिचार है । २. अपरिगृहीतागमन : अपरिगृहीता अर्थात् किसी के द्वारा ग्रहण न की गई कन्या या वेश्यादि के साथ संसर्ग करना। अपरिगृहीत का एक अर्थ है स्वयं द्वारा अपरिगृहीत अर्थात् . ३०. उपासकदशांग १/२७ (लाडनूं, पृष्ठ ४००) । ३१. आवश्यकसूत्र - (परिशिष्ट, पृष्ठ २२) । ३२. तत्त्वार्थसूत्र ७/१६ (सर्वार्थसिद्धि)। ३३. वसुनन्दीश्रावकाचार -२/२ - उद्धत - उपासकदशांग और उसका श्रावकाचार -पृष्ठ १०६ । . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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