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जैनदर्शन के अनुसार अन्यायी, दोषी एवं आक्रमणकारी के प्रतिकार हेतु की गई हिंसा से गृहस्थ पूर्णतया विरत नहीं होता है।
पूर्वोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक के अणुव्रत के अन्तर्गत संकल्पपूर्वक निरपराध त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया जाता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्रावक के लिये स्थावर जीवों की हिंसा का निषेध नहीं है। श्रावक के लिये भी अनावश्यक स्थावर प्राणियों की हिंसा का तो निषेध ही है, किन्तु अपराध करने वालों की हिंसा का और एकेन्द्रिय जीवों जैसे वनस्पति आदि की हिंसा का पूर्ण त्याग गृहस्थ जीवन में अशक्य है। हिंसा के चार रूप है- संकल्पजा, विरोधजा, उद्योगजा और आरम्भजा । इनमें गृहस्थ केवल संकल्पजा हिंसा का त्याग करता है। गृहस्थ के अहिंसा व्रत की सुरक्षा के लिये निम्न पांच नियम प्रतिपादित किये गये हैं
१. बन्धन :
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किसी भी प्राणी को बांधना, उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालना, पिंजरे आदि में बंद कर देना तथा अपने आश्रित नौकर आदि के प्रति अमानवीय व्यवहार करना अहिंसा अणुव्रत का अतिचार है।
२. वध :
प्राणियों पर लकड़ी, चाबुक आदि से घातक प्रहार करना श्रावक के लिये वर्जित है।
३. छविच्छेद :
क्रोध या मनोरंजन वश किसी भी प्राणी के अंगोपांग का छेदन करना, अंग-भंग करना आदि श्रावक के लिये अकरणीय है। डॉ. सागरमल जैन ने इसका लाक्षणिक अर्थ वृत्तिच्छेद करते हुये लिखा है कि किसी की आजीविका छीन लेना या उसे उचित पारिश्रमिक नहीं देना भी अहिंसा के साधक के लिये अनाचरणीय है ।
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