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________________ x37 शास्त्र चर्चा करना। ६. शास्त्रों के विपरीत अर्थ से बचना ७. वस्तु स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना। ८. तत्वज्ञ बनना। १६. अजीर्ण होने पर भोजन नहीं करना। १७. नियत समय पर भोजन करना। ६. धर्म, अर्थ एवं काम का अवसरोचित सेवन करना- गृहस्थ जीवन में अर्थ एवं काम पुरूषार्थ का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता है, अतः उनका सेवन इस प्रकार करना चाहिए ताकि धर्म पुरूषार्थ उपेक्षित न हो। .. १६. अतिथि, साधु आदि का सत्कार करना। २०. आग्रह से दूर रहना। २१. गुणानुरागी होना। २२. अयोग्य देश और काल में गमन नहीं करना। २३. स्वसामर्थ्य के अनुसार कार्य करना। २४. सदाचारी पुरूषों को उचित सम्मान देना, उनकी सेवा करना। ५. अपने आश्रितों का पालन-पोषण करना। २६. दीर्घदर्शी होना। २७. विवेकशील होना अर्थात् अपने हित-अहित को समझना। २८. कृतज्ञ होना अर्थात् उपकारी के उपकार का विस्मरण नहीं करना। २६. सदाचार एवं सेवा के द्वारा जनता का प्रेमपात्र बनना। ३०. लज्जाशील होना। २१. करूणाशील होना। ३२. सौम्य होना। ३३. यथाशक्ति परोपकार करना। ३४. काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य आदि आंतरिक शत्रुओं से बचने का प्रयत्न करना। ५. इन्द्रियों को वश में रखना। जैसा पहले संकेत किया जा चुका है कि इन गुणों की संख्या विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग बताई है फिर भी जहां आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य हेमचंद्र ने इनकी संख्या ३५ मानी है, वहीं प्रवचनसारोद्धार में २१ एवं सागारधर्मामृत में १७ गुणों का उल्लेख हुआ है, लेकिन ये सभी गुण इन ३५ गुणों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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