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अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं । अतः हम विस्तार भय से यहां उनकी अलग से चर्चा नहीं कर रहे हैं।
जहां तक उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है उसमें हमें मार्गानुसारी गुणों का कहीं कोई स्पष्ट वर्णन प्राप्त नहीं होता है किन्तु इसकी शिक्षाओं एवं कथानकों में इनसे संबंधित चर्चा अवश्य उपलब्ध होती है जैसे, न्यायपूर्वक धन अर्जन करने के सन्दर्भ में इसके चतुर्थ 'असंस्कृत' अध्ययन में कहा गया है कि पापकर्म से उपार्जित धन नरक का कारण है। इसी प्रकार इस का विनय अध्ययन शिष्टजन की सेवा शुश्रूषा की शिक्षा देता है तथा योग्य निवास स्थल की चर्चा साधु के उपाश्रय के संबंध में की गई है।
उत्तराध्ययनसूत्र के तीसरे चतुरंगीय अध्ययन में मनुष्यत्व को दुर्लभ बताया गया है।" मानवोचित गुणों से युक्त होना ही मनुष्यत्व है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि मार्गानुसारी गुणों से युक्त होना ही मनुष्यत्व है। मार्गानुसारी का एक गुण यह भी है कि देश एवं कुल के अनुरूप आचरण करें । उत्तराध्ययनसूत्र भी देश-काल परिस्थिति के अनुरूप आचरण की शिक्षा देता है। कुल की मर्यादा का उल्लंघन न करने की शिक्षा उत्तराध्ययनसूत्र के बाईसवें अध्ययन में राजमति ने स्थनेमि को प्रतिबोध देते हुए दी थी। ... उत्तराध्ययनसूत्र के इषुकारीय अध्ययन में पुरोहित के पुत्रों को जिन विशेषणों से अंलकृत किया गया है वस्तुतः वे मार्गानुसारी गुण ही है। यथा'निविण्णसंसारभया' अर्थात् पापभीरूता, श्रद्धासम्पन्नता, कामभोगों में अनासक्ति आदि। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में मार्गानुसारी गुणों में से कुछ गुणों का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
11.३ श्रावक के बारह व्रत :
'व्रत' को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है - वियते प्राप्यते सद्गतिरनेनेति व्रत-नियमः इत्यर्थः अर्थात् जिससे सद्गति की प्राप्ति होती है, उसे
.. (क) प्रवचनसारोद्धार - २३६; ... (ख) सागारधर्मामृत - अध्याय १ । १६. उत्तराध्ययनसूत्र ४/२। १७. उत्तराध्ययनसूत्र - ४/१। १८. उत्तराध्ययनसूत्र - २२/४० ।
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