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________________ ४39 11.2 मार्गानुसारी के पैंतीस गुण (श्रावक के मुख्य गुण) ___आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य नेमिचन्द्र तथा पं. आशाधर जी ने श्रावक जीवन की पूर्व भूमिका के रूप में कुछ सद्गुणों का उल्लेख किया है। आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें 'मार्गानुसारी गुण' कहा है। मार्गानुसारी गुण से तात्पर्य श्रावक जीवन जीने की प्राथमिक शर्त है। श्रावक के ये मार्गानुसारी गुण इस बात के परिचायक हैं कि व्यक्ति को धार्मिक या आध्यात्मिक साधना करने के लिये पहले कुछ व्यवहारिक एवं सामाजिक नियमों का पालन करना चाहिए, तभी वह अणुव्रतों की साधना का अधिकारी बन सकता है। धर्मबिन्दुप्रकरण एवं योगशास्त्र में मार्गानुसारी के निम्न पैंतीस गुणों का उल्लेख किया गया है जो संक्षेप में निम्न हैं" : 5. न्यायनीतिपूर्वक धन का उपार्जन करना। २. शिष्ट पुरूषों के आचरण की प्रंशसा करना। . ३. कुल एवं शील में अपने समान स्तर वालों से परिणय संबंध करना। . पापों से भय रखना अर्थात् पापाचार का त्याग करना। ५. अपने देश के आचार का पालन करना। ६. दूसरों की निंदा नहीं करना। ७. ऐसे घर में निवास करना जो सुरक्षावाला तथा वायु, प्रकाश आदि से युक्त न हो। ..... घर के द्वार अधिक नहीं रखना । ६. सत्पुरूषों की संगति करना। १०. माता-पिता की सेवा करना। ११. चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले स्थानों से दूर रहना। १२. निन्दनीय कार्यों का त्याग करना। १३. आय के अनुसार व्यय करना। १४. देश एवं कुल के अनुरूप वस्त्र धारण करना। ... १५. बुद्धि के निम्न आठ गुणों से संपन्न होना १. धर्म श्रवण की इच्छा। २. अवसर मिलने पर धर्म श्रवण करना। ३. .. शास्त्रों का अध्ययन करना। ४. उन्हें स्मृति में रखना। ५. जिज्ञासा से प्रेरित होकर १४. (क) धर्मबिन्दुप्रकरण - १/४-५८ । (ख) योगशास्त्र - १/४७-५६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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