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11.1 सप्तव्यसन का त्याग (दुर्व्यसनमुक्ति)
व्यसन शब्द मूलतः संस्कृत शब्द है । संस्कृतकोश के अनुसार इसका तात्पर्य वे आदतें हैं जिनका परिणाम विपत्तिकारक या कष्टप्रद होता है । प्रस्तुत विवेचन में जिन्हें व्यसन कहा जा रहा हैं वे विपत्ति के हेतु हैं। यहां हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है अर्थात् जिन प्रवृत्तियों का परिणाम विपत्तिकारक या कष्टप्रद है वे प्रवृत्तियां दुर्व्यसन कही गयी हैं।
वैदिक परम्परा में अठारह दुर्व्यसनों का उल्लेख प्राप्त होता है।' जैनाचार्यों ने दुर्व्यसनों के मुख्य सात प्रकार प्रतिपादित किये हैं - १. जुआ २. मांसाहार ३. सुरापान ४. वेश्यागमन ५. शिकार ६. चोरी और ७. परस्त्रीगमन। सामान्यतः ये सातों नरक की प्राप्ति के मूल कारण माने गये हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में इन व्यसनों का आंशिक रूप से उल्लेख प्राप्त होता है। अतः हम ज्यादा विस्तार में न जाकर इनका संक्षिप्त वर्णन कर रहे हैं :१. जुआ :
जुआ एक निन्दनीय कर्म है। इसमें बिना परिश्रम के धन प्राप्ति की चाह बनी रहती है। इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है कि जुआ लोभ की संतान है, फिजूलखर्ची का जनक है। उत्तराध्ययनसूत्र में जुए के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इसके पांचवें अध्ययन की सोलहवीं गाथा में 'धुत्तेव' शब्द का प्रयोग हुआ है। टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ द्यूतकार अर्थात् जुआरी किया है। प्राकृत हिन्दी कोश में भी धुत्त शब्द का एक अर्थ जुआ खेलने वाला किया गया है।'
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अज्ञानी जीव मृत्यु के समय हारे हये जुआरी की तरह शोकग्रस्त होता है और अकाम मरण को प्राप्त होता
४. संस्कृत-हिन्दी-कोश पृष्ठ ६५८। ५. देखिये - जैनाचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ २६५ । ६. उत्तराध्ययनसूत्रटीका पत्र - २४८ ७. प्राकृत-हिन्दी-कोश, पृष्ठ ४८८ |
- (शान्त्याचार्य)।
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