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________________ ४२६ करता है, वह श्रावक है। श्रावक शब्द का दूसरा अर्थ सुनने वाला भी है अर्थात् जो धर्म मार्ग का श्रवण कर विवेकपूर्वक आंशिक रूप से उसका आचरण करता है, वह श्रावक है। यह निर्विवाद सत्य है कि जैन परम्परा में श्रमणधर्म को श्रेष्ठ एवं प्रधान धर्म माना गया है। तथापि, इसमें गृहस्थ साधकों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यही नहीं उत्तराध्ययनसूत्र में तो स्पष्टतः यह कहा गया है कुछ गृहस्थ भी श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। यहां किया गया श्रेष्ठता का निर्धारण भांवचारित्र की. अपेक्षा से है; द्रव्य चारित्र से नहीं। उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में गृहस्थलिंग सिद्ध का उल्लेख है अर्थात् गृहस्थ भी मुक्ति का अधिकारी है यद्यपि दिगम्बर परम्परा इसे मान्य नहीं करती है। तथापि श्वेताम्बर जैन परम्परा के कथानकों में मरूदेवी माता एवं भरत चक्रवर्ती के गृहस्थ जीवन में मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन उपलब्ध होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुक्ति का सम्बन्ध मात्र वेश . से नहीं वरन् आचरण की पवित्रता तथा कषाय विजय से है। फिर भी श्रमण जीवन को प्रमुखता देने का प्रयोजन यह है कि श्रमण उन बाह्य निमित्तों से जिनके द्वारा आत्मा विषय-वासना की ओर उन्मुख होती है, दूर रहते हैं अर्थात् वे साधना की अनुकूल परिस्थिति में रहते हैं। श्रावक जीवन की पूर्व पीठिका । गृहस्थ व्यक्ति व्यसनमुक्त तथा कुछ विशिष्ट गुणों से युक्त होने पर ही श्रावक कहलाने का अधिकारी होता है। श्रावक के आचार को चार भूमिकाओं में विभाजित किया जा सकता है - 1. सप्त व्यसन त्याग 2. मार्गानुसारी के पैंतीस गुण 3. श्रावक के बारह व्रत 4. ग्यारह प्रतिमा श्रावक की पूर्वोक्त स्थितियों का वर्णन आगम ग्रन्थों में क्रमपूर्वक नहीं मिलता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सामान्यतः एक सद्गृहस्थ में इन गुणों का होना तो आवश्यक है ही। जहां तक हमारे शोधग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है उसमें हमें श्रावकाचार का सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध वर्णन प्राप्त नहीं होता है। फिर भी इसमें श्रावकाचार से सम्बन्धित विषयों का जो कुछ विवरण उपलब्ध होता है उसके आधार पर हम यहां श्रावकाचार का वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं। ३. उत्तराध्ययनसूत्र ३६/४६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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