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उत्तराध्ययन सूत्र
साधना का प्रवेशद्वार सम्यग्दर्शन है तो इसकी चरमपरिणति मुक्ति है। जैन परम्परा में साधना के क्षेत्र में गतिमान साधक के दो प्रकार हैं श्रमण एवं श्रावक । साधकों का यह विभाजन चारित्र (आचरण) के आधार पर किया गया है । सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन की साधना तो दोनों की समान हो सकती है। क्योंकि आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान तथा नवतत्त्वों या साधना के आदर्श देव - गुरू एवं धर्म पर अविचल श्रद्धा रखना श्रमण एवं श्रावक दोनों के लिये अनिवार्य है। श्रावकाचार एवं श्रमणाचार शब्द भी आचारगत भिन्नता को ही प्रस्तुत करते हैं ।
में प्रतिपादित श्रावकाचार
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जैनागम स्थानांगसूत्र में धर्म के दो प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं। १. श्रुत धर्म २. चारित्र धर्म ।' श्रुतधर्म के अन्तर्गत सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन की आराधना की जाती है अर्थात् नवतत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान तथा उन पर श्रद्धा रखना और चारित्रधर्म के अन्तर्गत संयम और तप की साधना की जाती है। इसमें श्रुतधर्म श्रमण एवं श्रावक दोनों के लिये समान रूप से आराध्य है । चारित्र धर्म के दो भेद किये गये है- सागार धर्म तथा अनगार धर्म । गृहस्थ उपासक या श्रावक का आचार सागार धर्म तथा श्रमण का आचार अनगार धर्म कहलाता है ।
१. स्थानांग २/१ ।
२. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड २, पृष्ठ १०६ ।
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आगार शब्द का अर्थ गृह या आवास होता है। गृह या घरों में रहकर की जाने वाली साधना सागार धर्म कहलाती है। अभिधानराजेन्द्रकोश के ..अनुसार पारिवारिक जीवन में रहकर धर्म का पालन करना सागार धर्म है । 2 गृहस्थ साधक के लिये जैन परम्परा में 'श्रावक' शब्द का प्रयोग किया जाता है इसमें तीन अक्षर है- 'श्र', 'व' एवं 'क'। यहां 'श्र' से श्रद्धा, 'व' से विवेक तथा 'क' से • क्रिया को ग्रहण किया जाता है अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक विवेकपूर्ण क्रिया / आचरण
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