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श्रमणपरम्परा में अर्थ की प्रधानता रही है। अतः शाब्दिक स्वरूप पर विशेष ध्यान नहीं देने के कारण ब्राह्मणों की तरह जैनाचार्य आगमग्रन्थों की अक्षरशः सुरक्षा नहीं कर पाये। साथ ही वेदों की सुरक्षा में गृहस्थों एवं ऋषियों दोनों का सहयोग रहा है। एक ओर यह परम्परा पिता पुत्र के द्वारा आगे बढ़ी तो दूसरी ओर गुरू शिष्य के
योग से आगे चली । इस प्रकार वेदपाठों की सुरक्षा का दोहरा प्रबंध था जिसने -- वेदपाठों को अविच्छिन्न रखा किन्तु जैनागमों की सुरक्षा में कुल परम्परा या पिता-पुत्र परम्परा का कोई सहकार न रहा । अतएव जैनश्रुत की परम्परा को जीवित रखने का श्रेय विद्यावंश (साधुसंघ) को ही जाता है। किन्तु काल के विपर्यय एवं बुद्धि की मन्दता के कारण यह परम्परा भी अविच्छिन्न नहीं रह सकी, फिर भी यह कहा जा सकता है कि अंगों का अधिकांश भाग जो आज उपलब्ध है, वह भगवान के उपदेश के अधिक निकट है। उसमें विस्मरण, परिवर्तन और परिवर्धन अवश्य हुआ है किन्तु वह परवर्ती आचार्यों की निजी कल्पना नहीं है। इस श्रुत संपदा को सुरक्षित रखने के अनेक प्रयास हुए हैं। जब जब श्रुत धारा विच्छिन्न होती प्रतीत हुई, श्रमणसंघ के समर्थ आचार्यों के नेतृत्व में श्रुत की सुरक्षा का प्रयत्न किया गया। जैन परम्परा में इस प्रकार आगमसुरक्षा के सामूहिक प्रयत्नों को भी 'वाचना' कहा गया है। जिस प्रकार बौद्धपरम्परा में त्रिपिटक के संकलन एवं सुरक्षा के लिए संगतियां हुई उसी प्रकार जैन परम्परा में आगमसाहित्य की सुरक्षा के लिए वाचनायें हुई। आगम की पांच वाचनाओं के निर्देश प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं।
प्रथम वाचना
प्रथम वाचना भगवान महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में हुई। अतः इसे पाटलीपुत्रीय वाचना कहते हैं। इसका इतिहास यह है कि मध्यदेश में द्वादश वर्षीय अकाल पड़ा। इससे श्रमण संघ अस्त व्यस्त हो गया। अनेक मेधावी श्रमण काल कवलित हो गये। वे अनेक दूरस्थ (समुद्र तटवर्ती) प्रदेशों. की ओर चले गये। अतः अध्ययन, अध्यापन, धारण तथा प्रत्यावर्तन सभी में विक्षेप पड़ने लगा | सुकाल होने पर जब अवशिष्ट साधु समुदाय एकत्रित हुआ तो उन्होंने पाया कि आगमज्ञान अंशतः विस्मृत एवं विश्रृंखलित हो गया है। अतः उन्होंने श्रुत संरक्षण को अनिवार्य एवं प्राथमिक कार्य समझा। इस वाचना में ग्यारह अंग तो व्यवस्थित किये गये पर बारहवें अंग दृष्टिवाद' और पूर्व साहित्य का वहां कोई विशिष्ट ज्ञाता नहीं था। उसके तत्कालीन ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु नेपाल में थे। तब संघ की प्रार्थना पर उन्होंने मुनि स्थूलभद्र को पूर्व की वाचना देना प्रारम्भ किया।
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