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निर्णयात्मक रूप से हम यह कह सकते हैं कि भगवान महावीर सचेल एवं अचेल दोनों ही परम्पराओं के समर्थक थे। उन्होंने गृहत्याग के समय एक वस्त्र धारण किया था फिर उसे भी छोड़ दिया अर्थात् पूर्णतया अचेलत्व को स्वीकार कर लिया इससे यह स्पष्ट होता है कि महावीर ने सचेलकत्व से अचेलत्व की ओर कदम बढ़ाया था।
सचेलत्व और अचेलत्व की समस्या के साथ ही एक दूसरी समस्या मुनि के आवास के सम्बन्ध में भी रही हुई है । जैनधर्म में चैत्यवास और वनवास की परम्परायें विकसित हुई। चैत्यवास वस्तुतः एक परवर्ती काल में विकसित परम्परा है जिसके परिणामस्वरूप जैनमुनि मठाधीश का रूप ले रहे थे किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में इस चैत्यवासी परम्परा का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र इस सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा करता है कि मुनि को किस प्रकार के स्थानों में ठहरना चाहिये।
उपाश्रय
मुनि के निवास स्थल को उपाश्रय या वसति कहते हैं। इसका शास्त्रीय नाम 'शय्या भी है। शय्या का सामान्य अर्थ है जिस पर शयन किया जाए, किन्तु शय्या शब्द मुनि के ठहरने के स्थान के अर्थ में भी रूढ़ हो गया है। इसी सन्दर्भ में आचारांग में 'शय्यैषणा' अध्ययन है, जिसमें मुनि को कैसे आवास में निवास करना चाहिये इसकी चर्चा है। प्राचीन समय में मुनि प्रायः नगर के बाहर उद्यानों में निवास करते थे। उत्तराध्ययनसूत्र में मुनियों के उद्यान में निवास करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। मुनि ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए नगर के बाहर उद्यान में आकर ठहर जाते थे, किन्तु वर्तमान काल में परिवर्तन हो गया। मुनियों के उपाश्रय गांव में होने लगे। वातावरण मन को प्रभावित करता है । इसलिये मुनियों के रहने का स्थान शुद्ध, संयम एवं स्वाध्याय के अनुकूल होना चाहिये। उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि के ठहरने के स्थान के विषय में जो निर्देश दिये गये हैं वे निम्न हैं 1209 -
२०८ उत्तराध्ययनसूत्र - १८/४; २०/४। २०६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३५/४, ५,६ एवं ७ ।
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