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उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार नेमिचन्द्राचार्य तथा शान्त्याचार्य के अनुसार सान्तर अर्थात् वर्धमानस्वामी के साधुओं के वस्त्रों की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किए जाते हो, वह धर्म सान्तरोत्तर है।05 वस्तुतः अचेल शब्द का अर्थ अल्प चेल करना और सान्तरोत्तर शब्द का अर्थ विशिष्ट रंगों के महा मूल्यवान वस्त्र करना उचित प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि प्रथम तो सान्तरोत्तर शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ न तो विशिष्ट होता है और न ही महामूल्यवान।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से सान्तरोत्तर शब्द का संधि विच्छेद दो तरह से किया जाता है -
(१) स + अन्तर + उत्तर (उत्तरीय) और (२) स + अन्तर (आंतरिक वस्त्र) + उत्तर (उत्तरीय)
प्रथम अर्थ की दृष्टि से जिस परम्परा में उत्तरीय वस्त्र अन्तर सहित हो, कभी धारण किया जाता हो और कभी नहीं अर्थात् ग्रीष्म आदि ऋतुओं में धारण नहीं किया जाता हो, वह सान्तरोत्तर है। यहां अन्तर को क्रिया विशेषण के रूप में और उत्तर को वस्त्र के अर्थ में अर्थात् संज्ञा के रूप में ग्रहण किया गया है। यद्यपि आचार्य शीलांक ने आचारांग टीका में और दिगम्बर विद्वान पं. कैलाशचन्दजी ने यही अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु यह अर्थ विचारणीय है। यदि उत्तर को उत्तरीय अर्थात् वस्त्र के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो अन्तर को भी वस्त्र के अर्थ में अर्थात् अन्तर वस्त्र के अर्थ में ग्रहण करना होगा। आचारांग एवं उत्तराध्ययनसूत्र के सन्दर्भो को देखते हुए यही अर्थ समुचित प्रतीत होता है।
. भगवान पार्श्व की परम्परा में मर्यादित वस्त्र धारण किये जाते थे जबकि महावीर ने वस्त्र के सन्दर्भ में अचेलत्व को प्रमुखता दी; फिर भी उन्होंने निर्ग्रन्थ संघ में सचेलत्व एवं अचेलत्व दोनों को ही यथाशक्ति एवं यथारूचि स्थान दिया। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मुक्ति के लिये मुख्य एवं पारमार्थिक लिंग/ साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप आध्यात्मिक सम्पत्ति है । अचेलत्व एवं सचेलत्व तो लौकिक/बाह्य लिंग मात्र है।2017
२०५ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २११६ ।
. (ब) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २११८।। २०६ आचारांग टीका १/६/३। ' २०७ उत्तराध्ययनसूत्र - २३/३३ ।
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