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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में मध्यवर्तीय २२ तीर्थकरों में से बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि एवं तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का वर्णन उसके बाईसवें एवं तेईसवें अध्ययनों में मिलता है। किन्तु इसमें भी बाईसवें तीर्थंकर की आचार व्यवस्था का तथा विशेष रूप से वस्त्र सम्बन्धी व्यवस्था का कोई निर्देश नहीं है। अरिष्टनेमी के शासन-काल में साध्वियां सवस्त्र होती थीं। इस तथ्य की पुष्टि उत्तराध्ययनसूत्र के बाईसवें अध्ययन से होती है। इसमें राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना वस्त्र सुखाने का उल्लेख है। पर उसी गुफा में साधना में स्थित साधु . रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र इसका वहां कोई संकेत नहीं किया गया है। ४१६ इस प्रकार दूसरे तीर्थंकर से लेकर बाईसवें तीर्थंकर तक की परम्परा सचेल थी या अचेल इसका कोई उल्लेख आगम ग्रन्थों में नहीं मिलता है। किन्तु : नियुक्तियों के आधार पर आचार्यों तथा विद्वानों ने इतना अवश्य माना है कि प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकर की आचार व्यवस्था एक समान होती थी। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऋषभदेव की परम्परा भी अचेल ही थी। उसी प्रकार मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों की आचार व्यवस्था एक समान होती थी, इस निर्देश के आधार पर पार्श्वनाथ तक की परम्परा सचेल थी, यह माना जा सकता है। इतना अवश्य सत्य है कि चाहे तीर्थंकरों की सैद्धांतिक व्यवस्था में कोई भिन्नता नहीं हो किन्तु आचारगत व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न थी क्योंकि आचार देश, काल एवं व्यक्ति सापेक्ष होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतः कंहा है कि प्रथम तीर्थंकर के युग में मनुष्य ऋजु - जड़ अर्थात् सरल किन्तु मन्द बुद्धि होते थे, जबकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के काल में मनुष्य ऋजु प्राज्ञ अर्थात् सरल, और समझदार होते थे, और महावीर स्वामी के काल में मनुष्य वक्रजड़ अर्थात् कुटिल और अविवेकी होते हैं। अतः मनुष्य की स्वभावगत विभिन्नता के आधार पर इन तीर्थंकरों की आचार व्यवस्था में भी कुछ भिन्नता अवश्य उपलब्ध होती है। 204 उत्तराध्ययनसूत्र में पार्श्वनाथ के धर्म को सान्तरोत्तर अर्थात् सचेल और भगवान महावीर के धर्म को अचेल कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि वस्त्र के सन्दर्भ में भगवान पार्श्व और भगवान महावीर की परम्परा भिन्न थी किन्तु पार्श्व की परम्परा के लिए प्रयुक्त सान्तरोत्तर शब्द का अर्थ विचारणीय है । २०४ उत्तराध्ययनसूत्र - २३ / २६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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