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________________ ४१५ में स्पष्टतः कहा गया है कि मुनि अचेल होता है और सचेल भी होता है।203 इसके अनुसार मुनि की सचेलता तथा अचेलता दोनों ही मोक्ष मार्ग है, उन्मार्ग नहीं है और दोनों ही प्रकार के मुनि मुक्ति के अधिकारी हैं। इस परम्परा ने वर्तमान कालीन परिस्थितियों में मुनि के अचेलत्व को समुचित नहीं माना है। यापनीय परम्परा के अनुसार अचेलता ही श्रेष्ठमार्ग है किन्तु आपवादिक स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकते हैं। इस परम्परा के अनुसार सचेल की मक्ति में कोई बाधा नहीं है किन्तु मनि की सचेलता अपवाद मार्ग है, मूल मार्ग नहीं । इस प्रकार जहां दिगम्बर परम्परा एकांत रूप से अचेलता की पोषक है, वहां श्वेताम्बर परम्परा वर्तमान में जिनकल्प (अचेल-मार्ग) का उच्छेद मानकर सचेलता पर ही बल देती है किन्तु यापनीय परम्परा अचेल तथा सचेल दोनों ही मार्गों को क्रमशः उत्सर्ग मार्ग तथा अपवाद मार्ग के रूप में स्वीकार करता है। समर्थ व्यक्ति के लिए उसका झुकाव अचेलत्व के प्रति ही है। उपर्युक्त मान्यताओं का ऐतिहासिक विकासक्रम कैसे एवं किस परिस्थितियों में हुआ है इसे जानना आवश्यक है। - श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्राचीन स्तर के आगम आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिक में सचेल एवं अचेल के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। इन ग्रन्थों की प्राचीनता तथा सम्प्रदाय निरपेक्षता अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा मान्य है । जहां तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसके द्वारा मान्य प्राचीन स्तर के ग्रन्थ कसायपाहुड एवं षट्खण्डागम में वस्त्र, पात्र के सम्बन्ध में कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है, वैसे तो विद्वानों की दृष्टि में ये दोनों ग्रन्थ यापनीय परम्परा के हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान ऋषभ के आचार-व्यवस्था आदि के सन्दर्भ में कोई स्पष्ट विवरण नहीं मिलता है। इसमें इतनां निर्देश अवश्य मिलता है कि उनके साधुओं की प्रकृति ऋजु-जड़ होती थी। पुनः यह भी मान्यता है कि ऋषभदेव की आचार-व्यवस्था महावीर के समान ही अचेल ही थी। भ. ऋषभ के पश्चात् और अ. महावीर के पूर्व मध्य के बाईस तीर्थंकरों में भ. पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य 4करों की आचार--व्यवस्था स्पष्टतः साक्ष्य आगम ग्रन्थों में अनुपलब्ध है। सराप्ययनसूत्र - २३/१३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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