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इस प्रकार मुख्यतः प्रतिक्रमण का सम्बन्ध अतीत से, कायोत्सर्ग का वर्तमान से एवं प्रत्याख्यान का भविष्य से है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार प्रत्याख्यान के द्वारा साधक आश्रव द्वारों का निरोध करता है, अर्थात् पापकर्मों के आगमन को रोक देता है।
___ कहावत की भाषा में यदि कहा जाय तो प्रत्याख्यान ‘पानी आने से पहले पाल बांधना है।
१०.७ सचेलक अचेलक का प्रश्न
उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में केशीश्रमण एवं गौतमस्वामी के प्रश्नोत्तर का संकलन हैं। इसमें केशीश्रमण, गौतमस्वामी से प्रश्न करते है कि वर्धमान स्वामी की आचार-व्यवस्था अचेलक है और पार्श्वनाथ स्वामी की आचार व्यवस्था सचेलक है या सान्तरोत्तर (अन्तर वस्त्र तथा उत्तरीय वस्त्र) की है। एक ही लक्ष्य के अनुगामी होने पर भी इस आचारगत भिन्नता का कारण क्या है ? इसके समाधान में दिया गया गौतमस्वामी का उत्तर सचेलत्व और अचेलत्व की समस्या का समुचित समाधान देता है। वस्तुतः यह समस्या ही जैन धर्म के विभाजन अर्थात् दिगम्बर - श्वेताम्बर तथा यापनीय परम्पराओं के उद्भव का आधार रही है। इस समस्या का सम्बन्ध मुख्यत: मुनि जीवन से है, क्योंकि गृहस्थ उपासकों, उपासिकाओं तथा साध्वियों की सचेलता (सवस्त्रता) तो तीनों ही परम्पराओं द्वारा स्वीकृत रही है। यहां आगमों और विशेषरूप से उत्तराध्ययनसूत्र के आधार पर इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करने के पूर्व इस सम्बन्ध में तीनों परम्पराओं की मान्यताओं पर दृष्टिपात कर लेना प्रांसगिक प्रतीत होता है।
दिगम्बरपरम्परा के अनुसार मात्र अचेल (निःवस्त्र) व्यक्ति ही मुनिपद का अधिकारी है। जिसके पास वस्त्र है, चाहे वह लंगोटी मात्र क्यों न हो वह मुनि पद का अधिकारी नहीं हो सकता है और उसकी मुक्ति भी संभव नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा अचेलत्व एवं सचेलत्व दोनों साधना को स्वीकार करती है। उत्तराध्ययनसूत्र
२०१ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१४ । २०२ यापनीय सम्प्रदाय जैनधर्म का ही एक विलुप्त सम्प्रदाय है पर उसका साहित्य आज भी उपलब्ध है; विस्तृत जानकारी के लिये देखिए - जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय
-डॉ. सागरमल जैन।
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