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आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' (द्वितीय भाग) में उपलब्ध होता है । इच्छुक पाठक वहां देख सकते हैं।197 (५) कायोत्सर्ग
जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसमें प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान से पूर्व कायोत्सर्ग करने का विधान है। शरीर के प्रति आसक्ति को कम करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग दो शब्दों के संयोजन से बना है काया+उत्सर्ग अर्थात् काया का उत्सर्ग या त्याग करना कायोत्सर्ग है। लेकिन जीवित रहते हुये देह का त्याग सम्भव नहीं है । इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य ने लिखा है कि आगमोक्त नीति के अनुसार शरीर का त्याग करना कायोत्सर्ग है।198 आगमोक्त नीति को स्पष्ट करते हये आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि क्रिया-विसर्जन एवं ममत्व-विसर्जन आगमोक्त नीति के दो अंग है।99 इस प्रकार देह के प्रति ममत्व का त्याग करना या देहाध्यास से उपर उठना कायोत्सर्ग
प्रतिक्रमण से भी यदि आत्मा पर लगी विषय-कषाय रूपी कालिमा शेष रह जाती है तो कायोत्सर्ग द्वारा स्वच्छ हो जाती है । आवश्यकसूत्र में कहा गया है - 'आत्मा की विशेष शुद्धि के लिये, प्रायश्चित्त करने के लिये, अपने आपको विशुद्ध करने के लिये, शल्य (माया, मिथ्यात्व एवं निदान शल्य) से मुक्त होने के लिये तथा पापकर्मों के नाश के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है ।200
- उत्तराध्ययनसूत्र एवं उसकी टीकाओं में कायोत्सर्ग तप के सन्दर्भ में व्यापक रूप से विवेचन किया गया है जिसकी चर्चा हम इस शोधग्रन्थ के नवम अध्याय (सम्यक्तप) में कर चुके हैं। (६) प्रत्याख्यान .
इच्छाओं को सीमित एवं मर्यादित करने की प्रक्रिया 'प्रत्याख्यान' आवश्यक है, जहां प्रतिक्रमण पूर्वकृत पापों से मुक्त होने का साधन है। कायोत्सर्ग वर्तमान कालिक पापकार्यों से मुक्ति दिलाता है; तथा प्रत्याख्यान भविष्य सम्बन्धी पापों से बचाये रखता है।
- (शान्त्याचार्य)।
७ देखिए पृष्ठ ४०२-४०३ । (उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५१ IME उत्तरायणाणि, भाग २, पृष्ठ १६८ ।
200 आवश्यकसूत्र, ५/३।
- (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ १५)।
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