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(४) प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण आत्म शोधन की सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है । प्रतिक्रमण शब्द प्रति+क्रमण के योग से बना है । प्रति का अर्थ है वापस एवं क्रमण का अर्थ है लौटना। इस प्रकार विभाव दशा की ओर उन्मुख आत्मा का स्वभाव दशा में लौटना प्रतिक्रमण है।
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिक्रमण के निम्न फल प्ररूपित किये गये हैं।5 - (१) व्रतों के छिद्र आच्छादित होते हैं । (२) आश्रव का निरोध होता है । (३) अशुभ प्रवृत्ति से होने वाले चारित्र के दूषण समाप्त होते हैं। . (४) अष्ट प्रवचन माताओं के प्रति जागरूकता की शुद्धि होती है । . (५) संयम के प्रति एकरसता उत्पन्न होती है । (६) समाधि की उपलब्धि होती है ।
प्रतिक्रमण किन कारणों से किया जाता है, इसका संक्षिप्त उल्लेख 'वंदितुसूत्र में निम्न रूप से उपलब्ध होता है -
(१) अकरणीय कार्यों को करना । (२) करणीय कार्यों को न करना । (३) जिनवचन में अश्रद्धा करना । (४) विपरीत मार्ग की प्ररूपण करना ।
इस प्रकार प्रतिक्रमण पापों के प्रक्षालन की विशिष्ट साधना है । जैसे पानी एवं साबुन के द्वारा कपड़ों पर लगी कालिमा दूर होती है उसी प्रकार आत्मा पर लगी हुई विषय कषाय की मलिनता प्रतिक्रमण से दूर होती है। .
बौद्ध परम्परा के अनुसार आलोचित पाप, पाप नहीं रहता अर्थात् पापाचरण की आलोचना करने पर व्यक्ति पाप के भार से हल्का हो जाता है। बौद्ध धर्म में 'प्रतिक्रमण' के स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा और पापदेशना शब्दों का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार वैदिक परम्परा में सन्ध्या, पारसी, ईसाई आदि धर्मो में किसी न किसी रूप में प्रतिक्रमण' की पद्धति को स्वीकार किया गया है । इनका तुलनात्मक विस्तृत वर्णन डॉ. सागरमल जैन के शोधप्रबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के
१६५ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१२ । १६६ वंदितुसूत्र - ४८ ।
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