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उस कारण को जानकर दूर करने पर, दोनों की भविष्य में एकरूपता हो सकती है अर्थात् मेरी आत्मा भी परमात्मा बन सकती है।
इस प्रकार आत्मा के विकारों को दूर करने के लिये चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का विधान किया गया है। (३) वन्दन
तीसरा आवश्यक 'वन्दन' है । चतुर्विंशतिस्तव में साधना के आदर्श के रूप में तीर्थंकरों की उपासना के पश्चात् साधना के पथ-प्रदर्शक गुरू को वन्दन करना भी अति आवश्यक है । गुरू का विनय करना, उनके प्रति अहोभाव रखना 'वन्दन' है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार वन्दन करने वाला व्यक्ति विनय के द्वारा उच्चगोत्र, अबाधित सौभाग्य एवं लोकप्रियता को प्राप्त करता है। वन्दन का मूल उद्देश्य अहंकार का विसर्जन करना है। उत्तराध्ययनसूत्र में विनयगण को धर्म का आधार कहा गया है192 । इसका प्रथम अध्ययन विनयाचार की व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करता हैं। विनय से सम्बन्धित विशेष चर्चा इसी ग्रन्थ के बारहवें अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र के शिक्षादर्शन' में द्रष्टव्य है।
वन्दन के सन्दर्भ में बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा गया है कि पुण्य का अभिलाषी व्यक्ति वर्ष भर में जो कुछ यज्ञ एवं हवन करता है उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता है । अतः सरलवृत्ति महात्माओं का अभिवादन करना ही श्रेयस्कर है। अभिवादन करने से व्यक्ति को आयु, सौन्दर्य, सुख एवं बल की प्राप्ति होती है193 । इस सन्दर्भ में मनुस्मति में भी कहा है कि अभिवादन एवं सेवा, आयु, विद्या, कीर्ति एवं बल की निरन्तर वृद्धि का कारण है। 94
.. इस प्रकार साधना के क्षेत्र में वन्दन का विशिष्ट महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
र उत्तराध्ययनसूत्र - १/४५ ।
३ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग -२, पृष्ठ ३६८ । Like मुनस्मृति - १/१२१ ।
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