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७. सत्य :
सत्य धर्म से तात्पर्य सत्यता या ईमानदारी पूर्वक जीवनयापन करना है। जैन दर्शन में सत्य को चार रूपों में व्याख्यायित किया जाता हैं। १. सत्य महाव्रत २. भाषा समिति ३. वचन गुप्ति ४. सत्य धर्म। सत्य बोलना सत्य महाव्रत या सत्य अणुव्रत है। हित, मित, एवं प्रिय बोलना भाषा समिति है तथा वचन व्यापार से विरत होना अर्थात् मौन रहना वचन गुप्ति है और प्रामाणिक जीवन जीना सत्य धर्म है।
सत्य धर्म से तात्पर्य मात्र वाचिक सत्य नहीं है अपितु आचरण की प्रामाणिकता है। दूसरे शब्दों में यह वचन एवं कर्म की एकरूपता है। साधक का अपने व्रतों एवं मर्यादाओं के प्रति निष्ठावान रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्य धर्म है।180 एक दृष्टि से वास्तविकता में जीना या यथार्थता को उपलब्ध करना सत्य धर्म है। ८. शौच :
शुर्भावः शौचम् (शुचिता) अर्थात् पवित्रता का नाम शौच है। शौच का सामान्य अर्थ दैहिक पवित्रता या शारीरिक शुद्धि किया जाता है यथा स्नान, दंत प्रक्षालन आदि; किन्तु जैनपरम्परा में जिस शौच धर्म का विधान किया गया है उसका सम्बन्ध मानसिक पवित्रता से है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 'कलुष मनोभावों को दूर करने हेतु धर्मरूपी सरोवर में स्नान कर विमल एवं विशुद्ध बनाया जाता
विषय वासनाओं या कषायों की गंदगी हमारे चित्त को कलुषित करती है अतः उसकी शुद्धि ही शौच धर्म है। 82 शौच का वास्तविक अर्थ आत्मपवित्रता या आत्मविशुद्धि है। मन, वचन और कर्म की निर्दोषता ही वास्तविक पवित्रता है और यही शौच धर्म है। ६. अंकिचनता :
अंकिचनता का व्युत्पत्तिपरक अर्थ नास्ति यस्य किंचन सः अकिंचनं अकिंचनस्य भाव इति आकिंचनम् अर्थात् आत्मा के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है, इस प्रकार का भाव आकिंचन्य है। यह निर्लोभता और अपरिग्रहवृत्ति की परिपूर्णता
१८० जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग -२, पृष्ठ ४१५ । १८१ उत्तराध्ययनसूत्र - १२/४७ । १५२ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग -२, पृष्ठ ४१७ ।
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