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है और एकत्व भावना की साधना है। तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार शरीर तथा धर्मोपकरणों आदि में ममत्व भाव का सर्वथा अभाव अकिंचनता धर्म है | 183
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मूलाचारवृत्ति के अनुसार परिग्रह का त्याग अकिंचनता है। इस प्रकार द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार के परिग्रह से मुक्त होना एवं शुद्ध आत्मस्वरूप में रमण करना अकिंचनता है। 84 परिग्रह का विस्तृत विवेचन हम पंचमहाव्रत के सन्दर्भ में कर चुके हैं। अकिंचनता का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए बौद्धदर्शन में भी कहा गया है कि अकिंचनता और अनासक्ति से बढ़कर कोई शरणदाता द्वीप नहीं है।
१०. ब्रह्मचर्य :
दसवां धर्म ब्रह्मचर्य है। परपदार्थों से विमुख होना अकिंचनता है तथा आत्मानुकूल प्रवृत्ति करना ब्रह्मचर्य है। विषयासक्ति मानव के चित्त को कलुषित करती है अतः इन्द्रियों के विषयों से विरत होकर आत्मभावों में लीन रहना ब्रह्मचर्य है । उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य धर्म का व्यापक रूप से विवेचन किया गया है जिसका वर्णन हम पंच महाव्रतों के सन्दर्भ में कर चुके हैं । अतः हम यहां यही कहकर विराम लेते हैं कि आत्मभावों में लीन रहना ब्रह्मचर्य है |
१०.६ षड् आवश्यक
'आवश्यक' जैन साधना का आधारभूत अंग है। जैनदृष्टि के अनुसार जीवन में दोषों की शुद्धि एवं सद्गुणों की अभिवृद्धि के लिये इनकी अपरिहार्य आवश्यकता है। 'आवश्यक आत्मविशुद्धि हेतु प्रतिदिन करने योग्य धार्मिक अनुष्ठान है।
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. वैदिक परम्परा में 'सन्ध्या', बौद्ध परम्परा में 'उपासना', ईसाइ धर्म में प्रार्थना तथा इस्लाम धर्म में नमाज़ के समान जैनपरम्परा में आवश्यक अवश्य करने योग्य दैनिक कर्त्तव्य है। यह प्रातः काल एवं सन्ध्या के समय किया जाता है।
'आवश्यक' की साधना श्रमण एवं श्रावक दोनों के लिये अनिवार्य है । अनुयोगद्वार में कहा गया है श्रमणों एवं श्रावकों द्वारा दिन एवं रात्रि के अन्त में
. १८३ तत्त्वार्थभाष्य, पृष्ठ- २१३ ।
१८४ देखिए - मूलाचार एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ २२६ ।
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