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व्यक्ति अन्तरात्मा (संयमी) होता है वह अपने हाथ, पैर, आंख और जिह्वा की प्रवृत्तियों पर संयम रखने वाला तथा सत्य और सरलता से सम्पन्न होता है।178
निर्लोभता को मुक्ति कहने का कारण यह हो सकता है कि पूर्ण निर्लोभता की प्राप्ति होने पर ही मुक्ति संभव हैं। लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करना अति कठिन है। क्रोध, मान, माया इन तीन कषायों का अन्त हो जाने पर भी दसवें गुणस्थानक के प्रारम्भ तक सूक्ष्म लोभ की सत्ता बनी रहती है और उस पर विजय प्राप्त होने पर अन्तर्मुहूर्त में ही व्यक्ति कैवल्य को प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसके घातिकर्म क्षय हो जाते हैं । और उसकी विदेह मुक्ति भी निश्चित हो जाती
५. तप :
कर्मों से मुक्त होने के लिए या आत्म विशुद्धि के लिए जो साधना की जाती है वह तप है। तप के मुख्यतः दो भेद हैं। बाह्य एवं आभ्यन्तर तथा इन दोनों के पुनः छ: -छ: भेद हैं। इस प्रकार तप के कुल बारह भेद हैं। इनका विस्तृत विवेचन हम उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित मोक्षमार्ग नामक अध्याय में कर
६. संयम :
मन, वचन एवं काया की प्रवृत्तियों का नियंत्रण करना अर्थात् विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना संयम है। जैसे पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा के लिए तप धर्म की साधना आवश्यक है उसी प्रकार भावी कर्मों के आश्रवों का निरोध करने हेतु संयम धर्म की साधना भी अनिवार्य है। समवायांगसूत्र में संयम के निम्न सत्रह प्रकार बताये हैं।79 । १. पृथ्वीकाय संयम २. अपकाय संयम ३. तेजस्काय संयम ४. वायुकाय संयम ५. वनस्पतिकाय संयम ६. द्वीन्द्रिय संयम ७. त्रीन्द्रिय संयम ... चतुरिन्द्रिय संयम ६. पंचेन्द्रिय संयम १०. अजीवकाय संयम ११. प्रेक्षा संयम १२.
उपेक्षा संयम १३. अपहत्य संयम १४. प्रमार्जना संयम १५. मन संयम १६. वचन संयम १७. काय संयम। अन्य विवक्षा से संयम के सत्रह भेद निम्न प्रकार से भी किये गये हैं - पांच आश्रव द्वार अर्थात हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग, चार कषायों का त्याग, पांच इन्द्रियों का संयम एवं मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों का संयम।
१७८ प्रश्नव्याकरण ७/२/१६ १७६ समवायांग - १७/२
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड ३, पृष्ठ ६६२) । -- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ८५१) ।
१७६ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग -२, पृष्ठ ४१५ ।
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