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________________ ४०७ ४. मुक्ति : मुक्ति का अर्थ 'निर्लोमता' है। लोभवृत्ति का त्याग ही मुक्तिधर्म है। कई मनीषियों ने मुक्ति को शौच, लाघव एवं अकिंचनता. का पर्याय भी माना है। मुक्ति का वास्तविक अर्थ निर्लोभता है; यह लोभ कषाय का प्रतिपक्ष है। निर्लोभता में पवित्रता, लाघव (हल्कापन) और अंकिचनता (निष्परिग्रहता) अन्तर्निहित है। लोभ की पूर्ण निवृत्ति में ये गुण स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहते हैं, चूंकि हमारे इस विवेचन का आधार उत्तराध्ययनसूत्र की टीका है और उसमें उल्लेखित दशविध धर्मों के नामों में मुक्ति एवं शौच को अलग अलग दर्शाया गया है अतः प्रस्तुत विवेचन में मुक्ति से तात्पर्य निर्लोभता ही है।15 इसी प्रकार मुक्ति का अर्थ अकिंचनता भी किया जाता है किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकारों द्वारा विवेचित दशविध धर्मों में अकिंचनता धर्म का भी पृथक् उल्लेख है। इस की टीका में मुक्ति के निर्लोभता एवं अकिंचनता दोनों अर्थ किये गये हैं। ज्ञातव्य है कि जहां उनतीसवें अध्ययन में प्रयुक्त मुक्ति का अर्थ निर्लोभता एवं अकिंचनता किया गया है, वहीं नवम अध्ययन में प्रयुक्त मुक्ति का अर्थ निर्लोभता किया है। उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में आकिंचन्य भाव को मुक्ति का फल कहा गया है। इससे प्रतिफलित होता है कि मुक्ति का अर्थ निर्लोभता है और इससे आकिंचन्य भाव की प्राप्ति होती है। लोभकषाय को जीतने के लिए अर्थात् निर्लोभता की प्राप्ति के लिए उत्तराध्ययनसूत्र में व्यापक रूप से प्रेरणा दी गई है । इसके आठवें कापिलीय अध्ययन में लोभ से होने वाले दुष्परिणामों का उल्लेख किया गया है। साथ ही उसमें यह भी प्रतिपादित किया गया है कि लोभ पर विजय निर्लोभता (अलोभ) से पाई जा सकती है। आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि जो साधक अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है वह प्राप्त काम भोगों का भी सेवन नहीं करता है। निर्लोभता को प्राप्त करना अति दुष्कर है । अतः यह कहा गया है कि दयालु देखे जाते हैं, निरहंकारी भी देखे जाते हैं किन्तु इस संसार में लोभ रहित विरले ही देखे जाते है और नहीं भी देखे जाते हैं। निर्लोभता को प्रतिपादित करते हुऐ प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि लोभ – मुक्ति अर्थात् निर्लोभता से भाषित _ १७५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०१६ ।। १७६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५६० (ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३१६ १७७ आचारांग - १/२/२/३६ - (भावविजयगणि) - (शान्त्याचार्य) - (शान्त्याचार्य)। - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ १६) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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