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________________ ४०६ ऋजोभावः आर्जवः तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार आत्म परिणामों की विशुद्धि तथा विसंवाद रहित प्रवृत्ति आर्जव धर्म है। माया या कपटवृत्ति आत्म प्रवंचना है। वस्तुतः यह अपने आपको धोखा देने की प्रवृत्ति है। यह पारस्परिक स्नेहभाव का नाश करती है। उत्तराध्ययनसूत्र में धर्म की शुद्ध पहचान बताते हुए कहा गया है'सो हि उज्जु भूयस्य धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई' अर्थात् सरल हृदय में ही धर्म का वास हो सकता है। दूसरे शब्दों में जहां सरलता है वहीं धर्म है। सरलता को पारिभाषित करते हुए आचारांगसूत्र में कहा गया है: – 'जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो' अर्थात् कथनी एवं करनी में एकरूपता ही सरलता है। यह भी कहा गया है मन में होय सो वचन उचरिये। वचन होय सो तन सों करिये।। कथनी एवं करनी की विद्रूपता की निन्दा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की मात्र स्थापना करते हैं अर्थात् कहते बहुत कुछ हैं किन्तु करते कुछ नहीं हैं वे व्यक्ति अपने आपको वाणी के छल से आश्वस्त करते हैं अर्थात् स्वयं को धोखा देते हैं।"2 __आर्जव धर्म का फल बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि : ऋजुता से जीव मन, वचन एवं कर्म की सरलता एवं अविसंवाद (अवंचकता) को प्राप्त होता है तथा अविसंवाद सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। 73 .. इस प्रकार मायाचार को जो मन, वचन एवं कर्म की एकरूपता से जीतते हैं वे ही मुक्ति मार्ग में आगे बढ़ते हैं। इस सन्दर्भ में 'अणगारधर्मामृत' में कहा गया है कि जिन्होंने आर्जव रूपी नाव के द्वारा दुस्तर माया रूपी नदी को पार कर लिया है उनको इष्ट स्थान तक पहुंचने में कौन बाधक बन सकता है ? - बौद्ध दर्शन में ऋजुता को कुशलधर्म कहा गया है। 'अंगुत्तरनिकाय' में कहा गया है कि माया या शठता दुर्गति का कारण है जब कि ऋजुता, सुख, सुगति, स्वर्ग और मोक्ष के कारण है। 14 - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २५) । १७० उत्तराध्ययनसूत्र - ३/१२ । १७१ आचारांग- १/२/५/१२६ १७२ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/६ । १७३ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/४६ | १७४ अंगुत्तरनिकाय - २/१५, १७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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