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होने पर व्यक्ति को निन्दा एवं प्रशंसा दोनों ही मनोविकार परेशान करते हैं। उसे न निन्दा की गरम हवा सहन होती है न प्रशंसा की ठंडी हवा। फलतः वह क्रोध एवं मान कषाय रूपी रोग से ग्रस्त हो जाता है।
क्रोध पर विजय प्राप्त करने का उपाय जैसे क्षमा भाव है उसी प्रकार विनय से मान पर विजय प्राप्त की जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि साधक विनय के द्वारा अहंकार पर विजय प्राप्त करे। इसमें विनय धर्म का अत्यन्त व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। इसके प्रथम अध्ययन का नाम ही विनयश्रुत है। यह इस बात का सबल प्रमाण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में विनय धर्म को प्रमुखता प्रदान की गई है। दशवैकालिकसूत्र में भी विनय का विस्तृत विवेचन किया गया
जैनाचार्यों ने विनय अर्थात् मार्दव भाव को धर्म का मूल कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में मान (मद) के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है। इस की टीका के अनुसार इनके नाम निम्न है16- १. जातिमद २. कुल मद ३. बल मद ४. रूप मद ५. तप मद ६. ऐश्वर्य मद ७. ज्ञानमद और ८. लाभ मद।187 प्रकारान्तर से रत्नकरंडकश्रावकाचार में भी इन आठ मदों का उल्लेख प्राप्त होता है।168 बौद्धदर्शन में यौवन, आरोग्य, जीवन, जाति, धन और गोत्र इन छ: मदों से बचने का निर्देश दिया गया है। मार्दव धर्म का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कहा गया है कि मृदुता से जीव अनुद्धत भाव को प्राप्त होता है। अनुद्धतजीव मृदु-मार्दव भाव से सम्पन्न होता है और आठ मद स्थानों को विनष्ट करता है।169. ३. आर्जव :
निष्कपटता या सरलता का भाव आर्जव धर्म है। आर्जव धर्म के द्वारा माया या कपट वृत्ति पर विजय प्राप्त की जाती है । इस प्रकार मनसा, वाचा और कर्मणा कपटपूर्ण प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव एवं ऋजुभाव अर्थात् सहजता का आविर्भाव ही आर्जव धर्म है।
१६४ विणएज्ज माणं - उत्तराध्ययनसूत्र - ४/१२ । १६५ दशवकालिक - नवम् अध्ययन । १६६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३१/१०। १६७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ३०१६ १६८ रत्नकरण्डक श्रावकाचार - १/२५ । १६६ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/५० ।
- (भावविजयजी)।
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