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सूक्ष्म अन्तर है, उसे ध्यान में रखना चाहिये- परीषह स्वभाविक रूप से आते हैं, उपसर्ग दिये जाते हैं और तप किया जाता है।
१०.५ दशविध मुनिधर्म
जैन ग्रन्थों में 'दशविध श्रमणधर्म' का वर्णन व्यापक रूप से उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इनसे सम्बन्धित चर्चा का वर्णन एक साथ नहीं मिलता है । इसके नवमें अध्ययन में आर्जव, मार्दव, क्षमा एवं मुक्ति इन चार धर्मों का ही उल्लेख मिलता है। साथ ही इसके इकतीसवें अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो दशविध मुनिधर्म में उपयोग रखता है, वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। इस गाथा की व्याख्या में उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार भावविजयगणि ने निम्न दस धर्मों का उल्लेख किया है।59 – १. क्षमा २. मार्दव ३. आर्जव ४. मुक्ति ५. तप ६. संयम ७. सत्य ८. शौच ६. अकिंचन और १०. ब्रह्मचर्य।
प्रकारान्तर से इन दस धर्मों का वर्णन . आचारांग, स्थानांग, समवायांग, मूलाचार, बारसानुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है। यहां यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि यद्यपि इन दस धर्मों के साथ प्रायः श्रमण या यति शब्द का प्रयोग किया जाता है तथापि ये दशविध धर्म श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के लिये आचरणीय है। यहां प्रयुक्त धर्म शब्द सद्गुण या सदाचरण का परिचायक है। उपर्युक्त ग्रन्थों में इनके क्रम एवं नामों में कुछ अंतर अवश्य प्राप्त होता है फिर भी मूल भावना में कहीं कोई अंतर नहीं है। हम इनका विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के क्रम के अनुसार प्रस्तुत कर रहे
हैं
- (भावविजयगणि)।
१५८ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/५७ । १५६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०१६ १६० (क) आचारांग - १/६/५;
(ख) स्थानांग - १०/१४; (ग) समवायांग - १०/६ (घ) मूलाचार - ११/१५; (ङ) तत्त्वार्थ -६/१२ । (च) बारसानुवेक्खा ७११
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