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इन बाईस परिषहों में बीस परीषह प्रतिकूल एवं दो परीषह अनुकूल हैं । आचारांगनियुक्ति में अनुकूल परीषहों को शीतपरीषह एवं प्रतिकूल परीषहों को उष्ण परीषह कहा गया है।156 इस प्रकार हमने परीषहों की चर्चा को सामान्यतया परीषह, उपसर्ग और तप को समान मान लिया है, किन्तु इन तीनों में सूक्ष्म अन्तर है जिसकी चर्चा हम अग्रिम पृष्ठों में करेंगे।
परीषह : उपसर्ग : तप मुनि जीवन के साधना काल में तीन महत्त्वपूर्ण स्थितियां होती हैं - परीषह, उपसर्ग एवं तप। उत्तराध्ययनसूत्र में परीषह एवं तप का विस्तृत विवेचन किया गया है। उपसर्ग के सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में एक गाथा उपलब्ध होती है जिसमें उपसर्ग देने वाले की अपेक्षा से उसके देवकृत, मनुष्यकृत एवं तिर्यचकृत ऐसे तीन भेद किये गये हैं। सामान्य जन बहुधा परीषह, उपसर्ग एव तप को समानार्थक समझ लेते हैं किन्तु वस्तुतः इन तीनों का प्रयोजन एक होते हुए भी इनमें मौलिक अन्तर है, जिन्हें हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं१. परीषह :
साधक के जीवन में सहज रूप से आने वाली, साधना में बाधक, परिस्थितियां परीषह कहलाती हैं। यद्यपि कुछ परीषह अनुकूल प्रतीत होते हैं, किन्तु साधना में विघ्नकारक होने से वस्तुतः तो वे भी प्रतिकूल ही हैं। ये परीषह देव, मनुष्य या तिथंच के निमित्त भी हो सकते हैं, किन्तु उनके पीछे देवादि की दुर्भावना नहीं होती है। दुर्भावना होने पर वे उपसर्ग हो जाते हैं। २. उपसर्ग :
साधना पथ पर चलने वाले साधक को दिये जाने वाले दुःख या पष्ट उपसर्ग कहलाते हैं । ये पूर्वकृत् वैर के कारण या साधक की परीक्षा की भावना से देव, मनुष्य या तिर्यच के द्वारा दिये जाते हैं । उपसर्ग अनुकूल, प्रतिकूल दोनों प्रकार
१५६ आचारांगनियुक्ति - २०२-२०३ १५७ उत्तराध्ययनसूत्र -३१/५ ।
- (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ४३६)
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