________________
तृण आदि की स्पर्शजन्य पीड़ा को समभाव से सहन करना तृणस्पर्श परीषह है। जो मुनि अचेल होते हैं, वस्त्र रहित होते हैं, वे जब घास पर शयन करते हैं तो उनके शरीर में तृण आदि के चुभने से पीड़ा होती है, उसे समभावपूर्वक सहन करना तृणस्पर्श परीषह पर विजय प्राप्त करना है । चूर्णि एवं वृत्ति के अनुसार यह परीषह जिनकल्पी मुनि की अपेक्षा से है।150 वर्तमान में दिगम्बर साधु को यह परीषह सहन करना होता है तथा श्वेताम्बर साधुओं को भी नंगे पैर चलने के कारण यह परीषह सहन करना होता है।
(१८) जल्ल परीषह :
शरीर यदि पसीने, धूल आदि से व्याप्त हो जाए तो भी मुनि को स्नान आदि की आकांक्षा नहीं करनी चाहिये और न ही पसीने आदि से युक्त शरीर से घृणा करनी चाहिये । यही जल्ल परीषह जय है ।
(१६) सत्कार
३६६
पुरस्कार परीषह :
इस परीषह में सत्कार और पुरस्कार ये दो शब्द हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के चूर्णिकार के अनुसार सत्कार का अर्थ है - अच्छा करना तथा सत्कार को ही पुरः अर्थात् आगे रखना सत्कार पुरस्कार है। 151 उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में परीषह अध्ययन के तीसरे सूत्र की व्याख्या में लिखा है- अतिथि की वस्त्रदान आदि से पूजा करना सत्कार है तथा अभ्युत्थान ( खड़ा होना), आसन प्रदान करना आदि पुरस्कार है। दूसरे शब्दों में अभ्युत्थान एवं अभिवादन आदि के द्वारा किसी को सम्मान देना सत्कार पुरस्कार है।"
152
-
तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार सत्कार का अर्थ पूजा प्रशंसा तथा पुरस्कार का अर्थ किसी कार्य के लिए किसी व्यक्ति को मुखिया बनाना या उसे आमंत्रित करना पुरस्कार है।' है । 153 इस प्रकार सत्कार-सम्मान प्राप्त करना ही सत्कार पुरस्कार है। इसे परीषह इसलिए कहा गया है कि इससे आत्मसाधना में बाधा उत्पन्न होती है और मान कषाय का पोषण होता है । अतः ऐसी अवस्था में समभाव रखना, विचलित नहीं होना, सत्कार पुरस्कार परीषह जय है ।
१५० (क) उत्तराध्ययनसूत्र चूर्णि पत्र - ८१; (ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - १३८ १५१ उत्तराध्ययनसूत्र चूर्णि पत्र - ७६ । १५२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र १३८ १५३ तत्त्वार्थराजवार्तिक - ६/१० ।
Jain Education International
- (शान्त्याचार्य) ।
(शान्त्याचार्य) ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org