________________
अपेक्षा तो गृहस्थजीवन में रहना ही अच्छा है, इस प्रकार का याचनाजन्य दीनता का भाव न आने देना याचना परीषह जय है । याचना में मान कषाय पर विजय पाना होता है, जो अत्यन्त दुष्कर है।
(१५) अलाभ परीषह :
३६८
आहार आदि की अप्राप्ति या अल्प प्राप्ति में मुनि को दुःखी नहीं होना चाहिये; बल्कि इस भावना से मन को आश्वस्त करना चाहिये कि अभी मुझे भिक्षा नहीं मिली तो क्या हुआ, तप का लाभ तो मिला ।
मुनि की आवश्यकता की पूर्ति गृहस्थ पर आश्रित होती है, अतः उसे कभी अपेक्षित सभी कुछ मिल जाता है, तो कभी कुछ भी नहीं मिलता है अर्थात् उसको कभी लाभ होता है तो कभी अलाभ। लाभ में हर्ष तथा अलाभ में विषाद दोनों ही साधना में बाधक हैं। अतः मुनि को समत्व भाव के द्वारा इस परीषह को सहनें की प्रेरणा दी गई है।
(१६) रोग परीषह :
शरीर में किसी प्रकार की व्याधि उत्पन्न हो जाने पर भी चिकित्सा नहीं करवाना तथा समभाव से रोग को सहन करना रोग परीषह पर विजय है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार चिकित्सा करने • एवं करवाने का यह सर्वथा निषेध जिनकल्पी मुनि के लिए है। स्थविर कल्पी मुनि के लिए सावद्य चिकित्सा का निषेध है। शान्त्याचार्य ने अपवाद के रूप में सावद्य चिकित्सा को भी स्वीकार किया है। उन्होंने उसके पांच कारण भी प्रतिपादित किए हैं148.
उत्तराध्ययनसूत्र के मृगापुत्र नामक अध्ययन की साधुचर्या को मृगचर्या कहा गया है । हिरण की बीमारी में कौन दवा करता है ? वह बीमार होने पर एक जगह बैठ जाता है और थोड़ा स्वस्थ होते ही अपनी चर्या करने लगता है; साधु को भी इसी प्रकार का होना चाहिये। 14
(१७) तृणस्पर्श परीषह :
तृण आदि की स्पर्शजन्य पीड़ा को समभाव से सहन करना तृणस्पर्श • परीषह है। जो मुनि अचेल होते हैं, वस्त्र रहित होते हैं, वे जब घास पर शयन करते
१४८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र १२० ।
१४६ उत्तराध्ययनसूत्र - १६ / ७६-८४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org