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________________ मुनि को अरति परीषह सहन करने की प्रेरणा दी गई है। 14 अरति परीषह को स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य ने लिखा है कि मोहनीय कर्म के उदय से यदि मुनि को संयम के प्रति अरति अर्थात् अरूचि का भाव उत्पन्न हो जाए तो उसे धर्माराधना में विघ्नभूत मानकर सहना चाहिये। 143 (८) स्त्री परीषह : उत्तराध्ययनसूत्र में स्त्रियों को संग कहा गया है । 144 मनुष्य को मोहित करने में स्त्रियों की विशेष भूमिका रहती है, अतः उन्हें उपचार से आसक्ति रूप 'संग' कहा गया है: आत्मगवेषक मुनि को स्त्रियों के द्वारा संयम से विचलित नहीं होना चाहिये; यही स्त्री परीषह पर विजय है। इसी प्रकार साध्वी को भी पुरूष की ओर आकर्षित न होकर इस परीषह पर विजय प्राप्त करना चाहिये । ३६६ 1 उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इस सन्दर्भ में स्थूलभद्र मुनि की कथा उल्लिखित है। 145 स्थूलभद्र मुनि ने अपनी गृहस्थावस्था की परिचिता कोशा के यहां चातुर्मास किया । कोशा ने मुनि को संयम से विचलित करने हेतु अनेक प्रयास किये । किन्तु मुनि उसके हावभाव से जरा भी विचलित नहीं हुए । उन्होंने समभावपूर्वक केवल स्त्री परिषह को ही सहन नहीं किया वरन् वेश्या को जिनधर्म की आराधिका, बारह व्रतधारी श्राविका बना दिया । (६) चर्या परीषह : यहां चर्या का अर्थ 'गमन' किया गया है। मुनि अप्रतिबद्ध विहारी होते हैं, वे चातुर्मास के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से विचरण करते रहते हैं। वे मार्ग में चलते हुए परिचित - अपरिचित गांवों में अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों को समभाव पूर्वक • सहन करते हैं, यही चर्या परीषह जय है । १४२ उत्तराध्ययनसूत्र- २/१४, १५ । १४३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र १३० १४४ उत्तराध्ययनसूत्र - २ /१६. । १४५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र १३१ Jain Education International - ( शान्त्याचार्य) । - (शान्त्याचार्य) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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