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________________ ३६५ फलादि तोड़े, न दूसरे से तुड़वाए, न पकाये और न पकवाए अपितु क्षुधाजन्य कष्ट को समभाव से सहन करे, यह क्षुधा परीषह पर विजय है। (२) पिपासा परीषह : __ तृषा वेदना को सहना पिपासा परीषह है । तीव्र प्यास से व्याकुल होने पर अहिंसक मुनि सचित्त जल की आकांक्षा नहीं करे और अदीन भाव से, समभाव से, अचित जल की ही एषणा करे, यह पिपासा परीषह पर विजय है।. . . (३) शीत परीषह : ग्रामानुग्राम विचरण करते समय शीतजन्य कष्ट के आने पर चाहे शीत निवारक स्थान एवं वस्त्रादि का अभाव हो फिर भी मुनि को अग्नि से शरीर को तपाने आदि की आकांक्षा नहीं करना चाहिये । यह शीत परीषह जय है। .... (४) उष्ण परीषह : इसे आतप परीषह भी कहा जाता है। ग्रीष्मकाल में धूप में चलते हुए धूल, पसीने आदि से परेशान होने पर भी स्नान करना, मुख पर पानी छिड़कना, पंखा झलना आदि ताप निवारक उपायों की अभिलाषा न करना, उष्ण परीषह जय (५) दंशमशक परीषह : . मच्छर आदि जन्तुओं से काटे जाने पर संग्राम में आगे रहने वाले हाथी की तरह अडिग रहकर उन रूधिर तथा मांस खाने वाले मच्छरों को न हटाना और न ही उन्हें पीड़ित करना, दंशमशक परीषह पर विजय है। (६) अचेल परीषह : वस्त्र के अभाव में या अल्प वस्त्र के होने पर वस्त्र प्राप्ति की आकांक्षा न रखना अथवा वस्त्र सम्बन्धी विकल्प न करना, अचेल परीषह जय है। (७) अरति परीषह : मुनि चर्या का पालन करते समय कभी मुनि को संयम के प्रति अरति/अरूचि हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में उत्तराध्ययनसूत्र में अहिंसक, १४१ उत्तराध्ययनसूत्र - २/२,३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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