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१०.४ बाईस परीषह
उत्तराध्ययनसूत्र के द्वितीय ‘परीषह' अध्ययन में मुनि के बाईस परीषहों का निरूपण किया गया है। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार साधना के क्षेत्र में जिन कठिनाईयों को सहन करना होता है उन्हें “परीषह' कहा जाता हैं।137 स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है समभाव पूर्वक परीषह सहन करने वाले साधक की कर्म निर्जरा होती है ।138 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मोक्ष मार्ग से च्युत न होने तथा कर्म निर्जरा के लिए जो कुछ सहने योग्य हैं, वह परीषह है।199
परीषह के शाब्दिक अर्थ पर विचार करने पर परि' अर्थात् समूचे रूप से अथवा अविचलित भाव से एवं “षह' अर्थात् सहन करना इस प्रकार साधना मार्ग में आने वाली अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को समभाव से सहन करना 'परीषह' है।
श्रमणसाधना का मुख्य साध्य 'समत्व' है। संयम यात्रा में समत्व से विचलन हेतु अनेक अनुकूल - प्रतिकूल परिस्थितियां आती हैं; उन परिस्थितियों में समभाव रखना या उन्हें समभाव से सह लेना ही परीषहजय है। उत्तराध्ययनसूत्र, समवायागसत्र आदि मैं बाईस परीषहों का वर्णन किया गया है, साथ ही उन पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा भी दी गई है। ये बाईस परीषह निम्न हैं।40_ (१) सुधा परीषह :
क्षुधा के लिये सामान्य बोलचाल की भाषा में भूख शब्द का प्रयोग किया जाता है। भूख की पीड़ा को असाध्य माना गया है । क्षुधा की तीव्र वेदना होने पर भी यदि प्रासुक एवं निर्दोष आहार न मिले तो उस वेदना को समभाव से सहन करना क्षुधा परीषह जय है।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि भूख से पीड़ित होने पर अथवा शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी मुनि क्षुधा शांति के लिए न तो स्वयं सचित्त
३७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र १२६
- (शान्त्याचार्य)। स्थानांग-५/१/७४
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६६२) । IPORE तत्त्वार्थसूत्र - ६/८। JENo (क) उत्तराध्ययनसूत्र - द्वितीय ‘परिषह' अध्ययन; र (ख) समवायांग - २२/१
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ८५६)।
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