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६. अभ्युत्थान .
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार गुरू पूजा अर्थात् वरिष्ठजनों का सम्मान करना अभ्युत्थान सामाचारी है।32 वंदना आदि के द्वारा गुरू एवं गुरूजन का सत्कार, सम्मान करना, उनके आने पर आसन छोड़कर खड़े हो जाना आदि शिष्टाचार अभ्युत्थान सामाचारी है।
१०. उपसम्पदा :
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 'अच्छणे उपसम्पदा' अर्थात् किसी अन्य गुरु का शिष्यत्व अथवा सान्निध्य स्वीकार करना उपसम्पदा है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार विशिष्ट ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए किसी आचार्य आदि के सान्निध्य को स्वीकार करना उपसम्पदा है। यह उपसम्पदा तीन प्रकार की है- ज्ञान सम्बन्धी, दर्शन सम्बन्धी और चारित्र सम्बन्धी।134 आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशकप्रकरण में इसके चार प्रकार प्रतिपादित किये हैं जिसमें पूर्वोक्त तीन के साथ चौथी तप सम्बन्धी उपसम्पदा भी है। 15 वैसे इनमें कुछ अन्तर नहीं है क्योंकि चारित्र के अन्तर्गत तप का अन्तर्भाव किया जाता है।
उपसम्पदा ग्रहण करना, यह औत्सर्गिक विधि नहीं है, आपवादिक विधि है । जब मुनि वर्तमान में जिस गण की व्यवस्था में रह रहा है, वहां ज्ञान, दर्शनादि की विशिष्ट उपलब्धि कराने वाले मुनि न हो तो वह गुरू की आज्ञा से दूसरे गण के आचार्य आदि का सान्निध्य स्वीकार करता है। आवश्यकनियुक्ति एवं पंचाशकप्रकरण में उपसम्पदा की विधि का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में क्रमश: महाव्रतारोपण अथवा भिक्षुसंघ की सदस्यता प्रदान करने से सम्बन्धित जो दीक्षा दी जाती है उसे उपसम्पदा कहा जाता है।
- (शान्त्याचार्य)।
१३२ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/७ । १३३ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/७ । १३४ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ५३५ १३५ पंचाशकप्रकरण - १२/४२ । १३६ (क) आवश्यकनियुक्ति - ७००
(ख) पंचाशकप्रकरण - १२/४४ ।
- (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ६६)
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