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७. मिथ्याकार :
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अनुचित या अकरणीय कार्य करने पर उसकी निंदा करना मिथ्याकार सामाचारी है। 128 इसके स्पष्टीकरण में टीकाकार ने लिखा है कि यह 'मिथ्या' अर्थात् अनुचित है। 12 इस प्रकार मेरे द्वारा यह निन्दनीय कार्य किया गया; इसे स्वीकार करना मिथ्याकार सामाचारी है। गलती को गलती के रूप स्वीकार कर लेना 'मिथ्याकार सामाचारी है।
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स्वयं की भूल को स्वीकार कर लेने की यह मनोवैज्ञानिक पद्धति है । अपनी गलती को स्वीकार कर लेने का अर्थ हैं - उचित या अनुचित के प्रति आत्मसजगता। व्यक्ति जितने भी गलत, मिथ्या कार्य करता है सब असजगता अर्थात् प्रमत्तदशा में करता है, आत्मसजगता की स्थिति में कोई भी अशुभ कर्म / दुष्कृत्य हो ही नहीं सकता है । अतः यह सामाचारी स्वयं के व्यवहार की समालोचना की सूचक है; साथ ही भविष्य में उस गलती के पुनरावर्तन की संभावना भी कम होती है।
८. तथाकार :
गुरू के आदेश या उपदेश की सहज स्वीकृति तथाकार है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में कहा गया है कि गुरू जब अध्ययन करवाये, आज्ञा या उपदेश दें तो मुनि 'तथाकार सामाचारी का प्रयोग करे अर्थात् आप जो कह रहे हैं वह अवितथ है, सत्य है, वैसा ही है। 131 ऐसे वचन का प्रयोग कर उसे आत्म स्वीकृति प्रदान करे । इस सामाचारी का पालन 'तहत्ति' (तथ्य + इति) शब्द से किया
जाता है।
१. स्वयं के
शिष्य जब
इस सामाचारी के पालन से दो बातें प्रतिफलित होती हैअहं का विसर्जन होता है और २. गुरू के उल्लास में वृद्धि होती है। गुरू की बात को स्वीकार करता है तो गुरू को इस बात का उल्लास होता है कि शिष्य मेरे द्वारा दिए गये ज्ञान को ग्रहण कर रहा है।
१२८ उत्तराध्ययनसूत्र २६ / ६ ।
१२६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ५३५
१३० व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर १३१ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ५३५
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- ( शान्त्याचार्य) ।
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( शान्त्याचार्य) ।
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