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इस प्रकार आवश्यक कार्य करने के लिए आवश्यकी और अकरणीय पाप कार्यों के निषेध के लिए नैषेधिकी सामाचारी है। इस सामाचारी का एक लाभ यह भी है कि स्थान में प्रवेश करते समय जब मुनि 'निस्सीहि' का उच्च स्वर से उच्चारण करता है तो अन्य साधुओं को भी उसके आगमन की सूचना हो जाती है। ३. आपृच्छना :
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अपना कोई भी कार्य करने के लिए गुरू एवं गुरू की अनुपस्थिति में अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ साधु की अनुमति लेना आपृच्छना सामाचारी है।
गुरु की आज्ञापूर्वक कार्य करने से व्यक्ति की प्रवृत्ति आत्मा के लिए हितकारी एवं उचित कार्यों में ही होती है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार उच्छ्रश्वास, निश्वास के अतिरिक्त सभी कार्यों के लिए गुरू की अनुमति लेनी अनिवार्य है । 118
आपृच्छना सामाचारी का फल बताते हुए 'पचाशकप्रकरण' में कहा गया है कि गुरू पूछकर कार्य करने से, वर्तमान भव के पाप कर्मों का नाश होता है, पुण्यकर्मों का बन्ध होता है, आगामी भव में सद्गति, सद्गुरू का लाभ एवं सभी कार्यों की सिद्धि होती है। 119
४. प्रतिपृच्छना :
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार गुरू अथवा दूसरे साधुओं का कार्य सम्पादित करने हेतु गुरू से अनुमति लेना 'प्रतिपृच्छना सामाचारी है। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में यह भी कहा गया है कि एक बार किसी कार्य के लिए गुरू ने स्वीकृति दी हो किन्तु पुनः उसी काम को करना हो तो पुनः स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिये। 120 कुछ आचार्य 'प्रतिपृच्छा' का पुनः पूछना अर्थ भी करते हैं । उनके अनुसार गुरू ने जिस कार्य को अनुचित होने के कारण मना किया था, आवश्यकता पड़ने पर उसी कार्य के लिए गुरू से पुनः आज्ञा लेना प्रतिपृच्छना सामाचारी है।
निषिद्ध कार्य हेतु पुनः पूछने का क्या औचित्य है ? इस सन्दर्भ में आचार्य हरिभद्र का मन्तव्य है कि इसमें दोष नहीं है, क्योंकि धर्म व्यवस्था में उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्ग है। उत्सर्ग से जो कार्य पहले अकरणीय था वह परिस्थिति
११८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ५३५
११६ पंचाशकप्रकरण १२ / २८ ।
१२० उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ५३५
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( शान्त्याचार्य) ।
- ( शान्त्याचार्य )
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