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इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - 'आहार करते समय मुनि भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में अच्छा बना है अच्छा पकाया है, अच्छा काटा है, इसका कड़वापन मिट गया है यह घृतादि से अच्छा स्वादिष्ट एवं रसयुक्त बना है, इस प्रकार के सावद्य वचनों का त्याग करे।111 (४) धूम : नीरस आहार की निन्दा करते हुए खाना धूम दोष है। (५) अकारण : आहार करने के छ: कारणों के अतिरिक्त मात्र शारीरिक पुष्टि हेतु आहार करना अकारण दोष है।
मुनि को आहार क्यों, कब एवं कैसे करना चाहिये, इसका उत्तराध्ययनसूत्र में विस्तृत विवेचन किया गया है। आहार-ग्रहण के कारण :
_ उत्तराध्ययनसूत्र में आहार ग्रहण करने के मुख्य रूप से छ: कारण प्रतिपादित किए गये हैं"? - १. क्षुधा निवृत्ति हेतु :
क्षुधा, जब साधना में विघ्न कारक बन जाय और मन की समाधि भंग होने की सम्भावना हो तो मुनि को आहार ग्रहण करना चाहिये। २. वैयावृत्य के लिए :
... अन्य साधुओं की सेवा सुश्रूषा के लिए मुनि को आहार ग्रहण करना चाहिये । ३. ईर्यापथ के शोधन के लिए :
. साधु ईर्यापथ का सम्यक प्रकार से पालन कर सकें अतः उन्हें आहार ग्रहण करना चाहिये दूसरे शब्दों में, गमनागमन की क्रिया में अहिंसा के पालन हेतु नेत्रबल एवं शरीरबल को सुरक्षित रखने के लिए मुनि को आहार ग्रहण करना चाहिये। इस सन्दर्भ में मूलाचार में 'इरियट्ठए' के स्थान पर 'किरियट्ठए' पाठ मिलता है । उसका अर्थ है- षट् आवश्यक आदि क्रियाओं को सम्यक रूप से
- उत्तराध्ययनसूत्र १/३६ ।
--17 'सुकडे त्ति सुपक्के त्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे ।
. सुनिटिए सुलढे त्ति, सावजं वज्जए मुणी ।।' १२ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/३२ ।। 19३ मूलाचार - ६/६०।
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