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इनमें से द्वितीय विकल्प निर्दोष है शेष विहित दोषयुक्त है।
५. संह्यत : एक पात्र में से दूसरे पात्र में निकाल कर आहार आदि देना संह्यत दोष है।
६. दायक : भिक्षा के अनधिकारी से भिक्षा ग्रहण करना दायक दोष कहलाता है। यथा - अति बाल, अति वृद्ध, अंधा, पागल, गर्भवती स्त्री, मद्यपान किया हुआ, ज्वर पीड़ित, नपुंसक, कम्पित शरीर वाला, गलित हस्त, छिन्न पाद, मूक बधिर आदि से आहार लेना दायक दोष है।
७. उन्मिश्र : सचित्त द्रव्य से मिश्रित आहार उन्मिश्र दोष वाला होता है।
८. अपरिणत : अपरिणत दोष दो प्रकार का है 1. द्रव्य अपरिणत दोष 2. भाव अपरिणत दोष जो द्रव्य पूर्णतया अचित्त न बना हो उसे ग्रहण करना द्रव्य अपरिणत दोष है जैसे पूरी तरह पके बिना शाक आदि लेना । आहार के अधिकारी. यदि दो व्यक्ति हों और उनमें से एक की इच्छा साधु को देने की न हो, ऐसा आहार ग्रहण करना भाव अपरिणत दोष है।
६. लिप्त : घृत आदि से लिप्त हाथ द्वारा आहार देना लिप्त दोष है ।
१०. छर्दित : नीचे गिराते हुये आहार देना / लेना छर्दित दोष युक्त कहलाता है। ये १० एषणा के दोष साधु एवं गृहस्थ (दाता) दोनों के द्वारा सम्भावित
परिभोगेषणा के पांच दोष
'परिभोगैषणा' के दोष जो सामान्य बोलचाल की भाषा में मण्डली के दोष कहे जाते हैं, उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इन्हें ग्रासैषणा के दोष भी कहा गया है। इसके पांच भेद निम्न है
(१) संयोजना दोष : रसलोलुपता के आहार में कारण दूध, शक्कर, घृत आदि मिलाकर खाना संयोजना दोष है।
(२) अप्रमाण दोष: प्रमाण से अधिक आहार करना अप्रमाण दोष कहलाता है। (३) अंगार दोष : आहार की प्रशंसा करते हुए आहार करना अंगार दोष है।
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