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है। श्वेताम्बर संप्रदाय के अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय अर्थात् स्थानकवासी और तेरापन्थी इनमें से ३२ ग्रन्थों को ही आगम के रूप में स्वीकार करते हैं। जहां तक दिगम्बरपरम्परा का प्रश्न है वह १२ अंगसूत्रों और १४ अंगबाह्यसूत्रों को स्वीकार तो करती है किन्तु उसके अनुसार वर्तमान में ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, इनके आधार पर दिगम्बर आचार्यों ने कुछ आगम तुल्य ग्रन्थ निर्मित किये हैं जिन्हें वे प्रमाणभूत मानते हैं; यथा- कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, गोम्मटसार आदि। १.२ जैन आगमों का वर्गीकरण
जैनपरम्परा में इन आगमग्रन्थों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जाता रहा है। प्राचीन परम्परा में जैन आगमों को 'अंग' और 'पूर्व' ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया था। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के आगम ‘पूर्व' के नाम से जाने जाते हैं। . 'पूर्व' शब्द का एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि जो अंगो के पूर्व रहे हों, उनके पूर्व निर्मित हुए हों या पूर्ववर्ती तीर्थकर के द्वारा उपदिष्ट हों, वे पूर्व हैं। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा के आगम 'पूर्व हैं और भगवान महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम 'अंग' हैं । आगे चलकर पूर्व साहित्य को बारहवें अंग "दृष्टिवाद' के अंतर्गत ' ही समाहित कर लिया गया। ... अंगों के बाद स्थविर आचार्यों के द्वारा जो ग्रन्थ निर्मित हुए उन्हें अंगबाह्य की संज्ञा दी गई। इस प्रकार अंग और अंगबाह्य इन दो भागों में आगमसाहित्य को वर्गीकृत किया गया। यह वर्गीकरण लगभग तीसरी शताब्दी तक प्रचलित रहा। आचार्य उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थसूत्र में आगमों को इन्हीं दो वर्गों में विभाजित किया है, साथ ही उन्होंने तत्त्वार्थ के स्वोपज्ञभाष्य में अंगग्रन्थों की संख्या १२ स्वीकार की है, किन्तु अंगबाह्य ग्रन्थों में से कुछ ग्रन्थों का नामोल्लेख करते हुए 'आदि' कहकर उनकी संख्या को अनिर्धारित ही छोड़ दिया । पुनः इन अंगबाह्यग्रन्थों को भी आवश्यक एवं आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभक्त किया गया। आचार्य उमास्वाति ने इस वर्गीकरण का कोई उल्लेख नहीं किया
तत्त्वार्थसूत्र अ. १. सू. २० । नन्दीसूत्र सू: ७६
- ('नवसुत्ताणि' लाडनूं पृष्ठ २६८)
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