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________________ ३८३ १५. अनिसृष्ट : किसी द्रव्य पर जिन जिन व्यक्तियों का अधिकार हो उन सबकी आज्ञा के बिना किसी एक अधिकारी द्वारा दिया गया आहार अनिसृष्ट दोष से ग्रसित होता है। १६. अध्वपूरक दोष : साधुओं को अपने गांव में आया जानकर अधिक भोजन बनाना अध्वपूरक दोष है। आहार के ये सोलह दोष दाता अर्थात् गृहस्थ की अपेक्षा से होते हैं । ये उद्गम दोष कहलाते हैं। अब हम सोलह उत्पादन के दोषों का वर्णन करेंगे जो साधु के द्वारा उत्पादित दोष हैं - उत्पादन के सोलह दोष १. धात्री दोष : धाय की तरह गृहस्थ बालकों को, लाड़-प्यार, क्रीड़ा आदि द्वारा, खुश करके आहार ग्रहण करना धात्री दोष है। २. दूती दोष : दूत की तरह संदेशवाहक का कार्य करके आहार ग्रहण करना दूती दोष है। ३. निमित्त दोष : हस्तरेखा, शकुन आदि शुभ, अशुभ भविष्य बताकर आहार लेना निमित्त दोष है। ४. आजीविका दोष : अपनी जाति, कुल, वंश आदि का परिचय देकर आहार ग्रहण करना आजीविका दोष है। ५. वनीपक दोष : गृहस्थ के समक्ष अपनी दीनता का प्रदर्शन कर आहार ग्रहण करना वनीपक दोष है। ६. चिकित्सा दोष : औषध आदि बताकर आहार ग्रहण करना चिकित्सा : कहलाता है। ७. क्रोधपिण्ड दोष : गृहस्थ पर क्रोध करके अथवा श्राप आदि का भय दिखाकर आहार ग्रहण करना क्रोधपिण्ड दोष कहलाता है। ८. मानपिण्ड दोष : अपने प्रभुत्व का प्रदर्शन कर आहार ग्रहण करना मानपिण्ड दोष है। ६. मायापिण्ड दोष : छल कपट के द्वारा आहार ग्रहण करना मायापिण्ड दोष है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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