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१२. प्रमाणप्रमाद : प्रस्फोटन एवं प्रमार्जन की मर्यादाओं का उल्लंघन करना. प्रमाणप्रमाद दोष है। १३. गणनोपगणना : प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका होने पर अंगुलियों के पर्वो पर गणना करना ‘गणनोपगणना' दोष है।
इस प्रकार निर्दिष्ट मात्रा से न्यून, अतिरिक्त या विपरीत प्रतिलेखन करना दोषपूर्ण है तथा उससे अन्यून - अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखन करना शुद्ध एवं निर्दोष प्रतिलेखन है। इन दोषों के अतिरिक्त प्रतिलेखन करते समय, काम कथा एवं जनपद (देश) कथा करना, प्रत्याख्यान करवाना अथवा अध्ययन एवं अध्यापन आदि कार्य करना वर्जित है, क्योंकि इससे प्रतिलेखना में असावधानी होने से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रसकाय जीवों की विराधना सम्भव. है । अतः प्रतिलेखना अन्य कार्यों से विरत होकर मौनपूर्वक करनी चाहिये।108 अब हम. अग्रिम क्रम में दिवस के तृतीय प्रहर की मुनि चर्या का वर्णन प्रस्तुत करेंगे।
आहारचर्या :
उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि की आहारचर्या का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि मुनि को गवैषणा, ग्रहणैषणा तथा परिभोगैषणा का पालन करना चाहिये । इस में गवैषणा के अन्तर्गत उदगम एवं उत्पादन सम्बन्धी दोषों का, ग्रहणैषणा में एषणा सम्बन्धी दोषों का तथा परिभोगैषणा में दोषचतुष्क के वर्जन का निर्देश दिया गया है । इन दोषों के प्रभेदों का वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में मिलता है। यहां लक्ष्मीवल्लभगणि कृत टीका के आधार पर इन सैंतालीस दोषों का विवेचन किया जा रहा है, जो निम्न हैं10
उद्गम के १६ दोष १. आधाकर्म : साधु विशेष के उद्देश्य से बनाया गया आहार लेना आधाकर्मिक दोष
१०८ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/२८ - ३० । १०६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ७२६ - ७३४
- (लक्ष्मीवल्लभगणि) ।
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