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५. विक्षिप्ता : प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना एवं उनसे ढकना 'आदि 'विक्षिप्ता' दोष है।
६. वेदिका : विपरीत आसन में बैठकर प्रतिलेखन करना 'वेदिका' दोष है । विपरीत आसन कौन कौन से है इसका विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इस प्रकार किया गया है: 107
उर्ध्ववेदिका
अधोवेदिका
उभयवेदिका
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तिर्यग्वेदिका -
एक वेदिका
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दोनों जानुओं पर हाथ रख कर प्रतिलेखन करना उर्ध्ववेदिका आसन है।
दोनों जानुओं के नीचे हाथ रखकर प्रतिलेखन करना अधोवेदिका आसन है।
दोनों जानुओं के बीच में हाथ रखकर प्रतिलेखन करना तिर्यग्वेदिका आसन है।
दोनों जानुओं को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखन करना उभयवेदिका आसन है।
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एक जानु को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखन करना एक वेदिका आसन है ।
७. प्रशिथिल : वस्त्र को ढीला पकड़ना 'प्रशिथिल दोष है। ढीला पकड़ने से वस्त्र के गिरने की सम्भावना रहती है और वस्त्र के गिरने से वायुकाय के जीवों की हिंसा के साथ ही अन्य त्रस जीवों की हिंसा भी हो सकती है।
८. प्रलम्ब : वस्त्र को इस तरह से पकड़ना कि उसके कोने लटकते रहें, प्रलम्ब दोष है।
६. लोल : प्रतिलेख्यमान वस्तु का हाथ या भूमि से संघर्षण करना 'लोल' दोष है। १०. एकामर्शा: वस्त्र को बीच में से पकड़ कर एक दृष्टि में ही पूरे वस्त्र को देख लेना ‘एकामर्शा' दोष है।
११. अनेक रूप धूनना: प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को बार बार झटकना या अनेक वस्त्रों को एक साथ झटकना 'अनेक रूपं धूनना' दोष है।
१०७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५४१
- ( शान्त्याचार्य) ।
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