SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में जब उपकरणों की संख्या कम से कम होती थी, तब मुखवस्त्रिका जो वस्तुतः एक वस्त्र खण्ड है, उसका उपयोग पूर्वोक्त चारों परिस्थितियों में होता हो तथा गोच्छग भी ऐसा ही ऊन का एक उपकरण हो जिसका उपयोग पात्र एवं भूमि के प्रमार्जन आदि में होता होगा । शनैः शनैः देश, काल एवं परिस्थितिवश उपकरणों की संख्या में वृद्धि होने से मुखवस्त्रिका और पात्र केशरिका तथा गोच्छग और रजोहरण पृथक् पृथक् उपकरण हो गए। ओघनिर्युक्ति की वृत्ति के अनुसार पात्र - केशरिका का अर्थ पात्र की मुखवस्त्रिका भी होता है।” दशवैकालिक में मुखवस्त्रिका के लिए हत्थग (हस्तक) शब्द का भी प्रयोग हुआ है।' 100 ३७८ प्रवचनसारोद्धार, ओघनिर्युक्ति आदि ग्रन्थों में पात्र सम्बन्धी सात उपकरणों का उल्लेख मिलता है . १) पात्र, २) पात्र बन्ध, ३) पात्र स्थापन, ४) पात्र केशरिका ५) पटल, ६) रजस्त्राण और ७) गोच्छग । इन्हें पात्र - निर्योग (पात्र - परिकर) भी कहा जाता हैं। 101 पात्र को बांधने के लिए 'पात्रबन्ध' होता है, जिस पर पात्र रखा जाता है वह ऊन का टुकड़ा पात्रस्थापन कहलाता है, जिससे पात्रों का प्रमार्जन किया . जाय वह पात्र की मुखवस्त्रिका या 'पात्रकेशरिका' कहलाती है। गोचरी (भिक्षा) लाने के समय पात्रों पर ढकने का वस्त्र 'पटल' कहलाता है । संभवतः यह आठ परतों वाला होने से पटल कहलाता हो । 'रजस्त्राण' के दो अर्थ दृष्टिगोचर होते हैं । ओघनियुक्ति के अनुसार चूहों तथा अन्य जीव जन्तुओं, बरसात के पानी एवं धूल आदि से बचाव के लिए 'रजस्त्राण' रखा जाता है। 102 इससे एक अर्थ यह भी निकल सकता है कि यह पात्रों का ढक्कन है जो लकड़ी का होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में गोच्छग अर्थ पात्र के ऊपर का वस्त्र किया गया है,103 उत्तराध्ययनसूत्र की गाथा में यह भी कहा गया है कि अंगुलियों से ६६ ओघनियुक्ति टीका - ६६४ १०० दशवेकालिक - ५/१/८३ । १०१ (क) प्रवचनसारोद्धार ५६२ । (ख) ओघनियुक्ति ६६८-६७० १०२ ओघनियुक्ति - ७०४ १०३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ५४० - Jain Education International उद्धृत् उत्तरज्झयणाणि भाग २, पृष्ठ ११४ । (निर्युक्तिसंग्रह - पृष्ठ २५२ - २५२ ) । (निर्युक्तिसंग्रह - पृष्ठ २५५) । (शान्त्याचार्य) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy