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________________ ૩૭૬ मिलता है। अब हम प्रतिलेखन के इन प्रकारों का क्रमशः वर्णन करेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य प्रतिलेखन के मुख्यतः तीन अंग निरूपित किये हैं" १. प्रतिलेखन : वस्त्र, पात्र, स्थान आदि दृष्टि द्वारा देखना कि कहीं इसमें जीव तो नहीं हैं। प्रतिलेखन का यह प्रकार प्रकाश में ही सम्भव है। २. प्रस्फोटना : जीवों को देखने के बाद धीरे से उन्हें हटाना । ३. प्रमार्जना : रजोहरण आदि ऊन से निर्मित कोमल स्पर्श वाले उपकरणों या मुहपत्ति के द्वारा जीवों को सावधानी पूर्वक उपयोगी क्षेत्र से दूर कर देना प्रमार्जना कहलाती है। प्रकाश के अभाव में भी इस क्रिया की आवश्यकता होती है। वस्त्र प्रतिलेखन : वस्त्र प्रतिलेखन की विधि का निरूपण करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि प्रतिलेखन के समय उत्कट आसन से बैठे; वस्त्र को ऊंचा एवं स्थिर रखे तथा शीघ्रता किये बिना उसका प्रतिलेखन करे अर्थात् सावधानीपूर्वक उसका निरीक्षण करे, जिसे दृष्टिप्रतिलेखन भी कहा जाता है; फिर वस्त्र को धीरे से झटके ताकि कोई सूक्ष्म जीव जो दृष्टिगोचर नहीं हुए हों वे वस्त्र से अलग हो जायें, तत्पश्चात् वस्त्र का प्रमार्जन करे। प्रतिलेखन करते समय वस्त्र या शरीर को नचाए नहीं अर्थात् व्यर्थ न हिलाए, न मोड़े, वस्त्र का कोई भी भाग दृष्टि से अलक्षित न रहे अर्थात् सम्पूर्ण वस्त्र का प्रतिलेखन करें, वस्त्र को दीवार आदि से स्पर्श न करे, छ: पूर्व (विभाग) और नव खोटक करे। छ: पूर्व अर्थात् वस्त्र के एक तरफ तीन विभाग कर प्रतिलेखन करे पुनः दूसरी तरफ तीन विभाग कर प्रतिलेखन करे, इस प्रकार ६ भाग कर प्रतिलेखन करना छ: पूरिम या पूर्व कहलाता है। नव खोटक का तात्पर्य है, हथेली १२ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/२४ । ३ उत्तराध्ययनसूत्र २६/२५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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